Sunday, September 27, 2020

मूलतः रंगमंच एक राजनैतिक कर्म है जो राजनीति और रंगमंच के अन्तर्सम्बन्ध को नहीं जानता वो ‘रंगकर्मी’ नहीं है! –मंजुल भारद्वाज

 रंगमंच और राजनीति :


मूलतः रंगमंच एक राजनैतिक कर्म है जो राजनीति और रंगमंच के अन्तर्सम्बन्ध को नहीं जानता वो ‘रंगकर्मी’ नहीं है! –मंजुल भारद्वाज

आज का समय ऐसा हैआज का दौर ऐसा है आज विपदा का दौर हैसंकट का दौर हैमहामारी का दौर हैया भारत के संदर्भ में कहूं तो एक ऐसा दौर है जब राजसत्ता अपने देशवासियों को खत्म करने पर उतारू है । ऐसे समय में बहुत अपेक्षाएं होती हैं । जाहिर है होनी भी हैंमानव स्वभाव हैअपेक्षाएं आप अपने - अपने तरीके से करते हैं । अपने लिए करते हैं और कई बार समग्र करते हैं और जो समग्र चिंतन होता है वही कलात्मक हैनहीं तो एक निजी सुख या निजी स्वार्थ होता है ।

आज तकनीक की संचार क्रांति पर सवार होकर मैं आप तक पहुंच रहा हूँ। यह पहुंचना संचार है। यह संचार व्यापक है। मतलब मैं अपने घर के कोने में बैठ के आज पूरी दुनिया में हूँदुनिया में आप मुझे पढ़ रहे हैंसमझ रहे हैंपर क्या आप मुझे महसूस कर रहे हैंमैं बात कर रहा हूँ कि तकनीक के द्वारा हम संचारित हैंतकनीक संख्यात्मक पूरा वैश्विक रूप ले चुकी हैलेकिन जो रूबरू होने का अनुभवअनुभूतिस्पर्श रंगमंच पर है वह यहां नहीं है और मैं जानता हूँ कि आप मेरे इस बात से सहमत हैं।

जब मैंने कहां सहमत हैं तो आज के इस लेख-चर्चा में बहुत सारे बिंदु असहमति के होंगे और वह असहमति के बिंदु कोई विरोधाभास नहीं है। बल्कि जो रंगमंच का लक्ष्य है उसे पाने का अलग अलग तरीका हैअलग-अलग पद्धति हैं और इस पद्धति के तहत हम आज सहमति असहमति से आगे बढ़ेंगे और मथेंगे इस समय को और इस को मथते हुए हम अपनी अवधारणाओं को मथेंगे। आप सब जो मुझे पढ़  रहे हैं आप सबकी अपनी अपनी अवधारणाएं हैं। वह अवधारणाएं आपने अपना जीवन जीते हुए बनाई हैंजीवन जीते हुए अनुभव की हैंउन अवधारणाओं को आज थोड़ा कुरेदेंगे ।

आज का दौर ऐसा है  खासकर भूमंडलीकरण के इस दौर से पहले यानी 1990 के पहले हम देश के नागरिक थे, 1990 के बाद हम देश में ग्राहक हो गए हैं तो हमको ऐसा कंडीशंड किया जाता है कि जो लिख रहा है उसकी यह जिम्मेदारी है कि पढ़ने वाले को संतुष्ट करे। भूमंडलीकरण के इस खरीद-फरोख्त  वाले दौर में जाहिर है जो बेच रहा होगा उसको ग्राहक यानी पाठक को संतुष्ट करना पड़ेगानहीं तो उसका सामान आप खरीदेंगे नहीं। लेकिन आज का विमर्श खरीद-फरोख्त नहीं है। मैं आपको कुछ बेच नहीं रहा हूँ और आप कुछ खरीद नहीं रहे हो। तो समझ बनाने के लिए हम सब की बराबरी की जिम्मेदारी है और उस जिम्मेदारी में आज आइए अपनी अवधारणाओं में हम ढूंढते हैं अपना-अपना बुद्ध!

'बुद्धका मतलब यहां एक बिंब हैएक तत्व हैजिसको मैं आज आपके सामने रख रहा हूँ। वह तत्व है अहिंसा कावह तत्व है प्रेम कासद्भाव कासह अस्तित्व का। बुद्ध के पहले से है कलारंगमंचऔर रंगमंच तब से है जब मनुष्य ने मनुष्य होने का एहसास किया था। या मैं कहूं मनुष्य से इंसान बनने की शुरुआत कला से शुरू हुई. मनुष्य ने जब समूह को समझा तो कला सामूहिक बनी और रंगमंच के रूप में हमारे सामने आज मौजूद है। मैं यह भी कह दूं कीरंगमंच को शुरू होने से लेकर आज तक कोई खतरा नहीं है और ना आगे होगा। वह खतरा इसलिए नहीं है ‘जब तक मैं इंसान के रूप मेंमनुष्य के रूप मेंसांस लेता रहूंगाजब तक मुझे जीने की चाहत रहेगीजब तक मुझे स्पर्श की अनुभूति रहेगीतब तक रंगमंच जीवित है’।हां रंगकर्मियों कीरंगमंच पर काम करने वालों की चुनौतियां हो सकती हैं और रहेंगी।

आइए समय को समझते हैं। समय का मतलब है स से सत्यम से मंचित और य से यायावर। यानी सत्य को मंचित करता हुआ यायावरजो सत्य को मंचित करता है वही रंगकर्मी है और आज के इस समय में एक क्रूरनिर्दयीनिर्मम दौर में हम जी रहे हैं। महामारी ने हमको पुनरावलोकन के लिए चेताया है। महामारी हमें यह कह रही है कि आप मनुष्यों की लालसा,लालच प्रकृति में दखल है.आप पुनरावलोकन कीजिए और अपने आप यह तय कीजिए कि आप को कैसे जीना है?

लेकिन राजसत्ता या राज्यव्यवस्था अलग व्यूहरचना रच रही है। मैं यहां तकनीक का बिंदु लाना चाहता हूँ। 70 महीने से हम तकनीक की बात सुन रहे हैंसमझ रहे हैंडिजिटल इंडिया की बात कर रहे हैं। डिजिटल हो गया है सब और यह भी सच है कि डिजिटल जुमलों से 70 साल के बाद 70 महीनों से एक अनोखी बहुमत की सरकार है। आप सोच रहे होंगे कि रंगमंच का राजनीति से क्या सम्बन्ध? तो मैं यह स्पष्ट कर दूं आपको कि मौलिक रूप से मूलतः रंगमंच एक राजनैतिक कर्म है! वह कैसे इसका विस्तार मैं आगे कर रहा हूँ. डिजिटल इंडिया को समझिए। डिजिटल इंडिया को समझते हुए हमें 1990 के बाद से यह समझना है कि 1990 के बाद इस देश में कौन रह रहा है। इस देश में वो रह रहा है जो मंडलकमंडल और भूमंडल से निकला है और आप देखिए कि मंडल वाले आरक्षण में शामिल होकर नौकरियों में हैं  यानी कि वह साधन हीनता से संसाधन संपन्न हो गए हैं। जो भूमंडल वाले हैं वह देश के संसाधनों को बेच कर अमीर हो रहे हैं और कमंडल वाले सत्ता पर बैठे हैं। डिजिटल जुमलों से वह सत्ता पर काबिज हैं। अब जब यह विपदा आई और पहला लॉक डाउन हुआ फिर दूसरा लॉक डाउन हुआ और फिर तीसरा हुआ और विगत 15 से 20 दिनों में जो मंडलकमंडल और भूमंडल के बाहर जो देशवासी हैंजो 70 महीनों में किसी को नहीं दिख रहे थे वो हम सबको दिखाई देना शुरू हो गए और हम सबको इस तरह से दिखाई देना शुरू हुए कि उन्होंने इस डिजिटल सत्ता को उखाड़ फेंका है। आप सही पढ़े हैं उखाड़ फेंका है!

जब आपके मन में कोई सृजन भाव आता है या कोई कलात्मक विचार आता है तो आप दिन रात उसको मथते रहते हैं फिर उसे लिखते हैं फिर उसे प्रस्तुत करते हैं उसके बाद वह दर्शकों को दिखाई देता है। आज यह अदृश्य भारतीय अपने कदमों से पूरे भारत को माप रहे हैं। चल रहे हैं इनका चलना लोकतंत्र का संघर्ष है। क्योंकि 70 महीने वाली सरकार ने डिजिटल फरेब से सबको काबू कर लिया था यानी मध्यमवर्गनिचला मध्यमवर्गसरकारी तंत्रमीडिया सब उनके जयकारे में लगे हैं। दुर्भाग्य है सेना भी फूल बरसा रही है । लेकिन यह अंतिम व्यक्ति वही है जो गांधी के हैंजो अंबेडकर के हैंजो मार्क्स के सर्वहारा हैंइन अंतिम व्यक्तियों ने एक सत्याग्रह किया है या मैं कहूं सत्ता से विद्रोह किया है। प्रतिरोध किया है और वह प्रतिरोध अहिंसक है।

बहुत व्यथित हुआ मैं और लगातार देखता रहा फिर जिस दिन औरंगाबाद (महाराष्ट्र) की घटना घटी और ट्रेन का जो हादसा हुआ उस दिन बहुत वेदना के बाद एक रचना रची और एक नई दृष्टि मुझे मिली। यही लोग हैं जो लोकतंत्र के लिए लड़ रहे हैं और यह डिजिटल इंडिया के राज में कहीं नहीं हैं। इनकी संख्या 12 करोड़ बताई गई है। मैं बात कर रहा हूँ समय की12 करोड़ का मतलब है कि वे लगभग जर्मनी के डेढ़ गुना के बराबर हैं। यानी दुनिया की पांचवीं आर्थिक महासत्ता हमारे देश में सड़कों पर चल रही है और जब मैंने वह कविता लिखी उस पर सवाल भी उठे। उस पर पूछा गया "बताओ मैं क्यों नहीं चला" ! यह भी चर्चा हुई कि यह कोई सोचा समझा फैसला नहीं है।

आज मैं जो भी बात कर रहा हूँ वह केवल और केवल रंगमंच के बारे में बात कर रहा हूँ। जी सही समझे आप और जब पढ़ा लिखा मध्यमवर्ग अपने घर में बैठकर कोरोना से हाथ स्वच्छ करने का प्रण ले रहा थाया बाहर मत निकलो की सीख दे रहा था उस समय यह मजदूरयह गरीब सोच रहा था। इसका सत्याग्रह बिना सोचा समझा नहीं है। इसका सत्याग्रह निरा पेट से निकला भी नहीं है। इसका सत्याग्रह है "मुझे करने के लिए काम चाहिए"। और जब मुझे करने के लिए कोई काम नहीं है तो मैं वहां पहुंचना चाहता हूँ जहां मुझे थोड़ा बहुत काम मिलेजहां मुझे सुरक्षा मिलेजहां मेरा अपना होना हो !

इस सत्याग्रह नेइस डांडी मार्च नेइस अहिंसक प्रतिरोध नेभारत के लोकतंत्र को जीवित कर दिया है। और डिजिटल सरकार को खत्म कर दिया है। जी कानूनी रूप से वे सत्ता में हैंलेकिन वे खत्म हो चुके हैं । गिरते हुए थोड़े दिनों में आप देखेंगे उन्हें।

मैं यह रेखांकित करना चाहता हूँ कि रंगमंच इसी तरह से इनविजिबल होता है और जो विजिबल होता है वह उसका 10% हिस्सा भी नहीं होता। रंगमंच को आपको समझना है तो एक बिंब आपके सामने रखता हूँ - वह है "आइसबर्ग" यानी "हिमखंड"। जितना समुद्र के ऊपर यानी पानी की सतह के ऊपर हमें हिमखंड दिखता है वह उसके टोटल आकार का 10% होता है बाकी सतह के नीचे होता है। तो 90% रंगमंच में क्या होता है रंगमंच यह शब्द जब आपके मस्तिष्क में कौंधता है तो आपके सामने क्या क्या दृश्य आते हैंआपके सामने आता है एक ऑडिटोरियमआपके सामने आता है स्टेजआपके सामने आते हैं दर्शकआपके सामने आते हैं सेट,कॉस्टयूममेकअपएक्टरपर यह अपने आप में थिएटर नहीं हैं। इस सबके पीछे क्या होता हैइस सबके पीछे है जीवन। जीवन बहुत बड़ा है और जीवन ही सत्य है। जीवन की पुनरावृत्ति है रंगमंच और जब तक आपको जीवन का अभ्यास नहीं होगा तब तक आप रंगकर्म में मौजूद हो सकते हैंसंवाद बोल सकते हैंपर रंगकर्म को आप कितना जीते हैं यह एक सवाल है?

आज जब मजदूरों ने अपनी आहुति देकरअपने प्राणों की आहुति देकरइस लोकतंत्र को जिंदा किया हैइसी तरह से रंगमंच मनुष्य में मनुष्य को जीवित करता है। मनुष्य में मनुष्य को जीवित करना या मनुष्य को इंसान बनाना यही रंगमंच का अंतिम ध्येय है यह समझ लीजिए। और अगर यह ध्येय पूरा नहीं होता है तो हम रंगमंच नहींरंगमंच के नाम पर कुछ और कर रहे हैं।

डिजिटल यानी तकनीकडिजिटल थिएटर एक नया जुमला उभर आया है। यह डिजिटल के फरेब को फिर से आपके सामने उदाहरण देता हूँ कि एक जनधन योजना का बहुत सारा ढोल पीटा गया। भूखे लोगों को उनके जनधन अकाउंट में 500 – 500 रूपये  ट्रांसफ़र किए और जब वो अपने अकाउंट से पैसा निकालने गए तो इस डिजिटल सत्ता की पुलिस ने उनका डंडों से स्वागत किया। सारी की सारी महिलाओं को हिरासत में लिया गया और उनको 10 हजार के मुचलके पर छोड़ा गया। यह है डिजिटल इंडिया!

दूसरा एक अनुभव है जिसको समझिए। आप सोचिए यह पैसा मनीआर्डर से उनके घर पहुंचा तोएक डाकिया उनको देकर आतातो क्या उनको डंडे खाने पड़तेहां मैं समझ गया आप बहुत समझदार हैंपढ़े-लिखे हैंसभ्य हैंदिमाग में यह सवाल आ रहा है सब जगह जब लॉक डाउन हैबंद है तो कैसे पहुंचता डाकियाजब पुलिस का डंडा आप तक पहुंच सकता हैतो डाकिया क्यों नहीं पहुंच सकता! अब तो आप देखिए कि डिजिटल इंडिया के फरेब से सरकार भी बाहर निकली है। दारु के ठेके खोले गए क्योंकि दारू इंटरनेट से नहीं पहुंचाई जा सकती उसको लेने जाना पड़ेगा या घर पहुँचाना पड़ेगा। तो खाना क्यों नहीं पहुंचाया जा सकता?

यहां यह समझना अनिवार्य है कि राजनीति के गर्भ से निकली राज्यव्यवस्था नीति बना सकती हैनियम बना सकती हैसड़क बना सकती हैमनुष्य को मनुष्य नहीं बना सकती और रंगकर्म मनुष्य को मनुष्य बनाता है। बिना राजनीति, राजनैतिक प्रक्रियाओं को समझे कैसे सत्ता से उपजे विष से मनुष्य को मुक्त किया जा सकता है? इसलिए जो राजनीति और रंगमंच के अन्तर्सम्बन्ध को नहीं जानता वो ‘रंगकर्मी’ नहीं है वो रंग दृष्टि शून्य मात्र एक नाचने गाने वाला हुनरमंद शरीर है. जो मात्र दरबारों की रंग नुमाइश होता है. सत्ता या पूंजीपतियों के दिल बहलाने वाला भोग हो सकते हैं. वो इस भोग से लोकप्रिय हो कर खूप पैसा कमा ख्यातिनाम हो सकते हैं पर रंगकर्मी नहीं हो सकते! जैसे बिना राजधर्म निभाए कोई लोकप्रियता की भीड़ से देश का प्रधानसेवक बन सकता है पर राजनीतिज्ञ नहीं बन सकता!

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सांस्कृतिक सृजनकार काल की पुकार! – मंजुल भारद्वाज

 



सांस्कृतिक सृजनकार काल की पुकार! – मंजुल भारद्वाज

देश और दुनिया आज सांस्कृतिक रसातल में है. तकनीक के बल पर संचार माध्यम में सारा विश्व लाइव है त्रासद यह है की तकनीक लाइव है आदमी मरा हुआ है. मरी हुए दुनिया को तकनीकी संचार लाइव कर रहा है. कमाल का विकास है व्यक्ति,परिवार,समाज, देश और दुनिया मरे हुए और तकनीक लाइव!
सवाल है आज कौन जिंदा है? हाँ हाडमांस के पुतले सांस ले रहे हैं पर क्या वो जिंदा हैं? जो सांस ले रहे हैं उनकी अवस्था क्या है? घरों में कैद,भूख,भय और भ्रम के जाल में फंसे हुए लोग क्या जिंदा होते हैं? लाखों लोग महामारी की वजह से सांस भी नहीं ले पा रहे और अकाल बैठ गए हैं मृत्यु की गोद में. अनजाने भय से ग्रस्त दुनिया आज मरी हुई रेंग रही है और तकनीक उसे लाइव बता रही है..हैं ना विकास का खिला हुआ कमल चेहरा!
जिंदा होने का अर्थ है भयमुक्त होना,विचार शील होना,विकारों से परे विवेक सम्मत होना. अपने विचार को साहस से व्यक्त करते हुए मानव कल्याण के लिए सत्य को खोजना. 21वीं सदी में जीवन यापन के सारे मुकाम हासिल करने के बाद भी दुनिया की यह हालत क्यों हुई? इस हालात की जड़ है लालच,वर्चस्ववाद और एकाधिकारवाद के लिए भूमंडलीकरण के नाम पर मनुष्य का वस्तुकरण, मनुष्य को उपभोग की सामग्री बनाकर ‘खरीदने और बेचने’ का विनाशकारी षड्यंत्र, जिसे ‘विकास’ के नाम से तकनीकी संचार से लाइव किया गया.
लाइव तकनीकी संचार ने सिर्फ़ 30 सालों में एक ऐसी पीढ़ी तैयार की जिसने विचार करने का मनुष्य कर्म आउटसोर्स कर दिया. यानी मनुष्य और प्राणी के फ़र्क को मिटा दिया. प्राणियों से मनुष्य को अलग करती है ‘विचार करने की क्षमता’ ! ‘विचार करने की क्षमता’ को खोकर केवल प्राणी बनना स्वीकार किया. प्राणी होने का मतलब है जिसके सारे निर्णय कोई और करे. ड्राइंग रूम में टीवी देखते हुए,मोबाइल पर भ्रमण करते हुए इन्टरनेट के माध्यम से अपनी जीवनयापन की जरूरत पूरी करने वाली दुनिया विचार करना भूल गई और एकाधिकारवाद के हाथों बिक गई. एकाधिकारवाद ने जीयो का भ्रम पैदाकर दुनिया को अपनी मुठ्ठी में कर लिया.अब एकाधिकारवाद दुनिया को अपनी मुठ्ठी में लेकर खेलता है,हसंता है और तकनीकी संचार से लाइव लाइव खेलता है और ज़ोर ज़ोर से जीयो जीयो मन्त्र का जप करता है.
एकाधिकारवाद का मतलब है विविधता का खात्मा! विविधता का खात्मा मतलब प्रकृति पर कब्ज़ा करने की हिमाक़त. उसी हिमाकत का प्रकृति आज उत्तर दे रही है.आज मनुष्य को जन्म देने वाली,पालने वाली प्रकृति उसके विरुद्ध खड़ी हो गई है और उसे लील रही है ... इसमें हाशिये पर रहने वाले पहले शिकार हो रहे हैं ..पर प्रकृति धीरे धीरे एकाधिकारवाद तक पहुँच रही है.
मनुष्य के इस पतन का कारण है उसकी सांस्कृतिक चेतना का मर जाना. इतिहास साक्ष्य है कोई कितना भी बलशाली,सिद्धहस्त,सर्वज्ञ व्यक्ति,समाज,सभ्यता या साम्राज्य रहा हो जब जब उसकी सांस्कृतिक चेतना भ्रमित हुई वो मिट गए. सांस्कृतिक चेतना “वो चेतना है जो मनुष्य को आंतरिक और बाहरी आधिपत्य से मुक्त कर उसके मूल्यों को उत्क्रांति के पथ पर उत्प्रेरित करती है और प्रकृति के साथ जीते हुए मनुष्य का एक स्वायत्त अस्तित्व बनाती है” पर विज्ञान को दफ़न कर उससे ईज़ाद तकनीक से एकाधिकारवाद ने प्रकृति से युद्ध का ऐलान कर दिया और पूरी मनुष्य संस्कृति को मटियामेट करने पर आमदा है ऐसे प्रलय काल में सांस्कृतिक सृजनकार ही दुनिया को बचा सकते हैं. जब पूरी राजनैतिक व्यवस्था बिक गई हो, धर्म पाखंड का अवतार ले महामारी काल में अस्पताल बनाने की बजाए अपनी सत्तालोलुता के लिए जनमानस में बसे भगवान के मंदिर का शिलान्यास कर,उनकी आध्यात्मिक संवेदनाओं से खेल रहा हो तब सांस्कृतिक सृजनकार ही समाज को उसकी मूर्छित अवस्था से जगा सकते हैं.
मनुष्य निरंतर परिवर्तन चाहता है. परिवर्तन की चाहत प्राकृतिक है. प्रकृति भी निरंतर परिवर्तित होती रहती है. मनुष्य के लिए आवश्यक है परिवर्तन को समझना.परिवर्तन एक ऐसी वर्तन प्रकिया है जो मनुष्य की हिंसा को अहिंसा, आत्महीनता को आत्मबल, विकार को विचार, वर्चस्ववाद को समग्रता, व्यक्ति को सार्वभौमिकता के प्राकृतिक न्याय और विविधता के सहअस्तित्व विवेक की ओर उत्प्रेरित करे!
कला हमेशा परिवर्तन को साधती है. क्योंकि कला मनुष्य को मनुष्य बनाती है. जब भी विकार मनुष्य की आत्महीनता में पैठने लगता है उसके अंदर समाहित कला भाव उसे चेताता है ... थिएटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य सिद्धांत अपने रंग आन्दोलन से विगत 28 वर्षों से देश और दुनिया में पूरी कलात्मक प्रतिबद्धता से इस सचेतन कलात्मक कर्म का निर्वहन कर रहा है. आज इस प्रलयकाल में थिएटर ऑफ़ रेलेवंस ‘सांस्कृतिक सृजनकार’ गढ़ने का बीड़ा उठा रहा है!
सत्य-असत्य के भान से परे निरंतर झूठ परोसकर देश की सत्ता और समाज के मानस पर कब्ज़ा करने वाले विकारी परिवार से केवल सांस्कृतिक सृजनकार मुक्ति दिला सकते हैं. सांस्कृतिक सृजनकार काल की पुकार!

मैं ढूंढ रहा हूँ उन साथियों को जिनके साथ में इस रंग अनुभव को साझा कर सकूं ! – मंजुल भारद्वाज

 



मैं ढूंढ रहा हूँ उन साथियों को जिनके साथ में इस रंग अनुभव को साझा कर सकूं ! – मंजुल भारद्वाज

26 नवम्बर,2019 को सांस्कृतिक चेतना को जागते हुए ‘सांस्कृतिक क्रांति’ का एक अविस्मरणीय अनुभव हुआ. रंग उर्जा का वो प्रवाह,वेग,तेज,सैलाब या बवंडर जो आप कहें वो मेरे मस्तिष्क में घनघना रहा है,उमड़ घुमड़ रहा है. ऐसा ही तो चाहा था 28 वर्ष पहले.. थिएटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य सिद्धांत के सूत्रपात का उद्देश्य यही है ..जिसकी पूर्ति का यह प्रयोग रहा. बिना राजनैतिक पार्टी या चुनाव में सीधे हस्तक्षेप किया ..अपने रंगकर्म से राजनैतिक परिदृश्य में दखल दे सत्ता को बदल देने का अनोखा अनुभव बड़ा बैचेन कर रहा है. जहाँ कलाकार सत्ता का भांड या पेट भरने के रंगकर्म का उपयोग कर रहे हों ..वहां रंगकर्मी की औकात की वो सत्ता की धारा बदल दे ..अविश्वसनीय है ..पर सत्य है ..

मेरे इस फितूर से किसी को लेना देना नहीं है. दर्शकों ने, आयोजकों ने ..मीडिया ने नाटक की , लेखक- निर्देशक की , कलाकारों की बहुत तारीफ़ की. कलाकार भी अपने कर्म की दाद के बाद अपने जीवन में मस्त हैं.

मैं बैचैन हूँ की यह अनुभव किसको बताऊँ, किस रंगकर्मी में यह चेतना की मशाल जलाऊँ.. समाज का कौन सा वर्ग है जिसको मेरे अनुभव से कोई लेना देना है वो भी वर्चस्वादियों के शासन काल में.

मैं ढूंढ रहा हूँ उन साथियों को जिनके साथ में इस रंग अनुभव को साझा कर सकूं !

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एक सृजनकार का उद्देश्य होता है, उसकी रचनामें निहित उर्जास्पंदित होकर, पूरे समाज में रचना के ध्येय को स्पंदित करे. और जब ये उद्देश्य साकार होता है तब सृजनकार का व्यक्ति आह्लादित होकर प्रकृति की भांति सम हो जाता है. यही सम उसे सृजनकार बनाता है.

मैंने ऐसा ही महसूस किया 26 नवम्बर, 2019 को नाटक राजगतिके मंचन में. महाराष्ट्र के चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद सत्ता की कवायद अपने षड्यंत्र के चरम पर थी. जबकि नाटक राजगतिराजनैतिक परिदृश्य को बदलने के लिए प्रतिबद्ध है. चुनाव के पहले जनता में संविधान सम्मत देश के मालिक होने का भाव नाटक राजगति ने जगाया था. वर्चस्व वादियों को उनका ठौर दिखा दिया था जनता ने.

सत्ता में वचन निभाना अनिवार्य होता है, ऐसा बोध सत्ता के लिए ही सही, पर राजनैतिक पार्टियों को भी हुआ. एक पार्टी विकारी पार्टी को छोड़ विचार की ओर आगे बढ़ी ... अलग अलग विचार का झंडा फहराने वाली सत्ता सुख भोगी पार्टियां भी खरखराते हुए होश में आई और सत्ता समीकरण का घटना क्रम हुबहू ऐसा चल रहा था जैसा नाटक राजगतिके मंच पर... एक-एक पल, संवाद, कलाकारों का सृजन स्पंदन और सृजनकार का राजनैतिक चिंतन दृष्टि आलेख रियल टाइम में रियल घटनाओं को स्पंदित कर रहा था. जिसका साक्षी था औरंगाबाद का गोविंदभाई श्राफ कॉलेज का ऑडिटोरियम. गोविंदभाई श्राफ कॉलेज के ऑडिटोरियम में दर्शकों ने राजगति की रंगसाधना से सत्ता, व्यवस्था, राजनैतिक चरित्र और राजनीति को अलग अलग राजनैतिक विचारधाराओं के माध्यम से विश्लेषित किया. विकार और विचार के संघर्ष को जीते हुए विचार धारा के प्रहार को भी सहन किया. थिएटर ऑफ़ रेलेवंस रंग सिद्धांत की इस अनूठी रंग अनुभूति को सभी दर्शकों ने वैचारिक असहमति के बावजूद स्वीकारा और वैचारिक असहमति के बिंदुओं पर निरंतर संवाद प्रक्रिया का संकल्प लिया.

आज लोकतंत्र की सबसे कमज़ोर कड़ी यानी  संख्याबल का फायदा उठाकर वर्चस्ववादी सत्ता के शीर्ष पर विराजमान हैं, जिनके आतंक के सामने पत्रकार पत्तलकार हो चारण हो गए, जनता विकल्पहीन भेड़ और कलाकार जयकारा लगाने वाली भीड़ बन गए. ऐसे समय में सत्ता के अंधे बीहड़ में दृष्टिहीन धृतराष्ट्र को राजनैतिक विवेकका दीया दिखाने का कर्म आत्मघाती है. पर इस चुनौती का थिएटर ऑफ़ रेलेवंस के प्रतिबद्ध कलाकारों ने बखूबी सामना किया और राजगति नाटक के मंचन से जनता के राजनैतिक विवेक को जगाया.

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#मंजुलभारद्वाज #रंगकर्म

 

 

न्याय,अधिकार और शोषण के खिलाफ़ संघर्ष के लिए प्रेरित किया नाटक ‘न्याय के भंवर में भंवरी’ ने! – मंजुल भारद्वाज

 



न्याय,अधिकार और शोषण के खिलाफ़ संघर्ष के लिए प्रेरित किया नाटक न्याय के भंवर में भंवरीने! – मंजुल भारद्वाज

नाटक न्याय के भंवर में भंवरीने नाटक राजगतिके विचार प्रहार और नाटक गर्भके प्रदीप्त कलात्मक चैतन्य को सामूहिक क्रंदन में बदल कर न्याय, अधिकार और शोषण के खिलाफ़ दर्शको को संघर्ष के लिए प्रेरित किया!

न्याय के भंवर में भंवरीआधी आबादी की अपने हक की हुंकार है. अपने ऊपर होने वाले अन्याय के खिलाफ़ यलगार है. न्याय के भंवर में भंवरीभारतीय समाज की पितृसत्तात्मक, सामंतवादी, और धर्मवादी शोषण की बुनियाद पर प्रहार है. समता, समानता, शोषणमुक्त,  न्याय और शांतिप्रिय समाज के निर्माण की पुकार है नाटक न्याय के भंवर में भंवरी’!

नाटक में नायिका की भूमिका को साकार करने वाली अभिनेत्री बबिता रावत ने किरदार को पूरी जीवन्तता के साथ मंच पर साकार किया और दर्शकों को उद्वेलित किया. अपनी अभिनय पराकाष्ठा से औरंगाबाद के गोविंदभाई श्राफ कॉलेज के ऑडिटोरियम में मौजूद दर्शकों को अपनी मानसिक, सामाजिक और सांस्कृतिक बनावट से रूबरू कराते हुए पुरुष में जड़ जमाये पुरुषवाद, उसकी हिंसा, क्रूरता और बर्बरता को सामने प्रकट किया. मर्दवाद के वर्चस्ववादी क्रूर चेहरे को देख पूरा सभागृह रो उठा और गहरी पीड़ा से भर गया. यह कलात्मक सांस्कृतिक चेतना जगी 27 नवम्बर को समता के सारथी महात्माफुले की पुण्यतिथि की पूर्व संध्या पर औरंगाबाद के गोविंदभाई श्राफ कॉलेज के ऑडिटोरियम में! 

नाटक की नायिका बबली रावत ने अपने दीर्घ अभिनय अनुभव को नए आयाम देते हुए समाज की सामान्य नारी की जीवन यात्रा को भंवरीमें रूपांतरित कर दर्शकों की चेतना को झकझोर दिया. मंच के अलग अलग हिस्सों, दृश्य और उससे बनते हुए कोणों का दर्शक के दृष्टिकोण को बदलने के लिए कमाल का उपयोग किया. नाटककार का आलेख और निर्देशक के दृश्य बंध को कलाकार जब जीता है, तो वो अपनी नई कलात्मकऊँचाइयों को छूता है. अभिनेत्री बबली रावत ने भी अपनी नई कलात्मक ऊँचाइयों का कीर्तिमान स्थापित किया.

अपनी पितृसत्तात्मक, सामन्ती, धर्मवादी, शोषणकारी और मर्दवादी बुनियाद के देहावसान के बाद निर्मल भावों में सुबकते दर्शकों ने समता, समानता, शोषणमुक्त, न्याय और शांतिप्रिय समाज के निर्माण की हुंकार भर नाटक को सार्थक बना दिया!

लेखन-निर्देशन : रंगचिंतक मंजुल भारद्वाज

कलाकार:अश्विनी नांदेडकर, बबली रावत ,योगिनी चौक, सायली पावसकर, कोमल खामकर, तुषार म्हस्के ,स्वाती वाघ, प्रियंका कांबळे,सुरेखा, बेटसी अँड्र्यूस आणि सचिन गाडेकर.

प्रकाश संयोजन : संकेत आवले

आयोजन: दो दिवसीय 26-27 नवम्बर, 2019 'थिएटर ऑफ़ रेलेवंस -संविधान संवर्धन नाट्य जागर ' महोत्सव

आयोजक :प्रगतिशील लेखक संघ व इप्टा औरंगाबाद,महाराष्ट्र

निमित्त : आयटक शताब्दी वर्ष व साहित्यरत्न अण्णा भाऊ साठे जन्मशताब्दी वर्ष

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#नाटकन्यायकेभंवरमेंभंवरी #थिएटरऑफ़रेलेवंस #मंजुलभारद्वाज

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दर्शकों ने जब ‘गर्भ’ नाटक के गर्भ से जन्म लिया! – मंजुल भारद्वाज

 




दर्शकों ने जब ‘गर्भ’ नाटक के गर्भ से जन्म लिया! – मंजुल भारद्वाज

राजनीति और उसके विभिन्न आयामों को मथने के बाद दर्शकों पर हुए वैचारिक प्रहार को नाटक ‘गर्भ’ ने कलात्मक स्पर्श से स्पंदित किया. राजगति की गहन मनन प्रकिया को एक कलात्मक मोड़ दिया नाटक ‘गर्भ’ ने.

दर्शकों को एक अनूठे भाव विश्व का भ्रमण कराते हुए दर्शक चेतना को अन्तर्मुखी किया. दर्शक अपने अंदर उतर गये और अपने को मंच पर जन्मते हुए देखा. अपने गर्भ धारण,जन्म,बाल्यकाल,जवान होते अरमानों,जात पात और धर्म की कुंठाओं, भाषा की जड़ता,भौगोलिक सीमाओं,प्रदूषित नदियों और पर्यावरण की विभीषिका,रंगभेद नस्लभेद के कुचक्र और क्रांति के खोखले नारों के शोर में कैद पाया. अपने निर्णय नहीं कर पाने के क्षोभ को जीया और वसुंधरा के गर्भ से निकलते लावे में स्वयं को स्वाहा किया. बरसों बरस साधना के बाद मानव निर्मित जाल को तोड़ने के लिए सांस्कृतिक चेतना का आवाहन किया और नीला भागवत का स्वरबद्ध ‘खूबसूरत है जिंदगी’ गीत को मंच पर कलाकारों के साथ गाया और समय की ताल के साथ ताल मिला स्वयं को सांस्कृतिक क्रांति के लिए प्रतिबद्ध किया!

‘गर्भ’ नाटक की नायिका ने पूरे नाटक को मंच पर अपने अभिनय से रचा. नाटककार के आलेख को अपनी अभिनय कला के गर्भ से मंच पर जन्म दिया. सारे रसों को साध कर बड़े सहज अदा,अंदाज़ से रंगमंच पर बिखेर दिया. अपनी आवाज़ के सुर और स्वर लहरियों से दर्शकों को बांधे रखा. देह की भाषा को अपने अभिनय का नया प्रतिमान बनाया. नायिका की एक एक मुद्रा ने सोने पर सुहागे की तरह दर्शक चेतना को अपने कलात्मक चैतन्य से प्रदीप्त किया.

थिएटर ऑफ़ रेलेवंस के सूत्रपात से लेकर यानी विगत 28 वर्षों से अपने अभिनय और रंग प्रतिबद्धता से थिएटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य सिद्धांत को भारत और वैश्विक भूमि पर साकार करने वाली वरिष्ठ रंग अभिनेत्री बबली रावत ने कहा, ‘अश्विनी नांदेडकर को मैंने गर्भ नाटक की पहली प्रस्तुति से लेकर आज की प्रस्तुति तक देखा है. आज की प्रस्तुति के बाद मैं यह कहना चाहती हूँ की अश्विनी नि:संदेह भारतीय रंगमंच की सर्वश्रेठ अभिनेत्री है’!

नायिका अश्विनी नांदेडकर का नाटक में बखूबी साथ दिया सशक्त कलाकार सायली पावसकर,कोमल खामकर,तुषार म्हस्के और प्रियंका कामले ने!

लेखन-निर्देशन : रंगचिंतक मंजुल भारद्वाज

कलाकार:अश्विनी नांदेडकर, बबली रावत ,योगिनी चौक, सायली पावसकर, कोमल खामकर, तुषार म्हस्के ,स्वाती वाघ, प्रियंका कांबळे,सुरेखा, बेटसी अँड्र्यूस आणि सचिन गाडेकर.

प्रकाश संयोजन : संकेत आवले

आयोजन: दो दिवसीय 26-27 नवम्बर, 2019 'थिएटर ऑफ़ रेलेवंस -संविधान संवर्धन नाट्य जागर ' महोत्सव

आयोजक :प्रगतिशील लेखक संघ व इप्टा औरंगाबाद,महाराष्ट्र

निमित्त : आयटक शताब्दी वर्ष व साहित्यरत्न अण्णा भाऊ साठे जन्मशताब्दी वर्ष

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#नाटकगर्भ #थिएटरऑफ़रेलेवंस #मंजुलभारद्वाज

संविधान दिवस, 26 नवम्बर को अपनी रंग साधना नाटक ‘राजगति’ से ‘संविधान’ को सहेजते हुए ! –मंजुल भारद्वाज

 



संविधान दिवस, 26 नवम्बर को अपनी रंग साधना नाटक राजगतिसे संविधानको सहेजते हुए ! –मंजुल भारद्वाज

एक सृजनकार का उद्देश्य होता है, उसकी रचनामें निहित उर्जास्पंदित होकर, पूरे समाज में रचना के ध्येय को स्पंदित करे. और जब ये उद्देश्य साकार होता है तब सृजनकार का व्यक्ति आह्लादित होकर प्रकृति की भांति सम हो जाता है. यही सम उसे सृजनकार बनाता है.

मैंने ऐसा ही महसूस किया 26 नवम्बर, 2019 को नाटक राजगतिके मंचन में. महाराष्ट्र के चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद सत्ता की कवायद अपने षड्यंत्र के चरम पर थी. जबकि नाटक राजगतिराजनैतिक परिदृश्य को बदलने के लिए प्रतिबद्ध है. चुनाव के पहले जनता में संविधान सम्मत देश के मालिक होने का भाव नाटक राजगति ने जगाया था. वर्चस्व वादियों को उनका ठौर दिखा दिया था जनता ने.

सत्ता में वचन निभाना अनिवार्य होता है, ऐसा बोध सत्ता के लिए ही सही, पर राजनैतिक पार्टियों को भी हुआ. एक पार्टी विकारी पार्टी को छोड़ विचार की ओर आगे बढ़ी ... अलग अलग विचार का झंडा फहराने वाली सत्ता सुख भोगी पार्टियां भी खरखराते हुए होश में आई और सत्ता समीकरण का घटना क्रम हुबहू ऐसा चल रहा था जैसा नाटक राजगतिके मंच पर... एक-एक पल, संवाद, कलाकारों का सृजन स्पंदन और सृजनकार का राजनैतिक चिंतन दृष्टि आलेख रियल टाइम में रियल घटनाओं को स्पंदित कर रहा था. जिसका साक्षी था औरंगाबाद का गोविंदभाई श्राफ कॉलेज का ऑडिटोरियम. गोविंदभाई श्राफ कॉलेज के ऑडिटोरियम में दर्शकों ने राजगति की रंगसाधना से सत्ता, व्यवस्था, राजनैतिक चरित्र और राजनीति को अलग अलग राजनैतिक विचारधाराओं के माध्यम से विश्लेषित किया. विकार और विचार के संघर्ष को जीते हुए विचार धारा के प्रहार को भी सहन किया. थिएटर ऑफ़ रेलेवंस रंग सिद्धांत की इस अनूठी रंग अनुभूति को सभी दर्शकों ने वैचारिक असहमति के बावजूद स्वीकारा और वैचारिक असहमति के बिंदुओं पर निरंतर संवाद प्रक्रिया का संकल्प लिया.

आज लोकतंत्र की सबसे कमज़ोर कड़ी यानी  संख्याबल का फायदा उठाकर वर्चस्ववादी सत्ता के शीर्ष पर विराजमान हैं, जिनके आतंक के सामने पत्रकार पत्तलकार हो चारण हो गए, जनता विकल्पहीन भेड़ और कलाकार जयकारा लगाने वाली भीड़ बन गए. ऐसे समय में सत्ता के अंधे बीहड़ में दृष्टिहीन धृतराष्ट्र को राजनैतिक विवेकका दीया दिखाने का कर्म आत्मघाती है. पर इस चुनौती का थिएटर ऑफ़ रेलेवंस के प्रतिबद्ध कलाकारों ने बखूबी सामना किया और राजगति नाटक के मंचन से जनता के राजनैतिक विवेक को जगाया.

विश्व के विभिन्न देशों में, देश के लगभग हर भू भाग पर लगातार 28 वर्षों की रंगसाधना में 26 नवम्बर की राजगति नाटक की प्रस्तुति एक अद्भुत, अविस्मरणीय रंग अनुभूति रही, जिसने सीधे सीधे राजनैतिक परिदृश्य को बदल सत्ता के निर्माण को प्रभावित किया!

राजनैतिक परिदृश्य बदलने और विचार, विविधता, विज्ञान, विवेक और संविधान सम्मतराजनैतिक कौम को गढ़ने के लिए प्रतिबद्ध है नाटक राजगति’!

लेखन-निर्देशन : रंगचिंतक मंजुल भारद्वाज

कलाकार:अश्विनी नांदेडकर, बबली रावत ,योगिनी चौक, सायली पावसकर, कोमल खामकर, तुषार म्हस्के ,स्वाती वाघ, प्रियंका कांबळे,सुरेखा, बेटसी अँड्र्यूस आणि सचिन गाडेकर.

प्रकाश संयोजन : संकेत आवले

आयोजन: दो दिवसीय 26-27 नवम्बर, 2019 'थिएटर ऑफ़ रेलेवंस -संविधान संवर्धन नाट्य जागर ' महोत्सव

आयोजक :प्रगतिशील लेखक संघ व इप्टा औरंगाबाद,महाराष्ट्र

निमित्त : आयटक शताब्दी वर्ष व साहित्यरत्न अण्णा भाऊ साठे जन्मशताब्दी वर्ष

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#संविधानदिवस #नाटकराजगति #थिएटरऑफ़रेलेवंस #मंजुलभारद्वाज

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समाज की ‘फ्रोजन स्टेट’ को तोड़ने के लिए थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’ अपनी कलात्मकता से विवेक की मिटटी में विचार का पौधा लगाने के लिए प्रतिबद्ध!- मंजुल भारद्वाज

 



समाज की ‘फ्रोजन स्टेटको तोड़ने के लिए थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’ अपनी कलात्मकता से विवेक की मिटटी में विचार का पौधा लगाने के लिए प्रतिबद्ध!- मंजुल भारद्वाज

27 वर्ष पहले यानी 1992 में भूमंडलीकरण का अजगर प्राकृतिक संसाधनों को लीलने के लिए अपना फन विश्व में फैला चुका था. पूंजीवादियों ने दुनिया को ‘खरीदने और बेचने’ तक सीमित कर दिया. तर्क के किले ढह चुके थे और आस्था के मन्दिरों का निर्माण करने के लिए आन्दोलन शुरू हो चुके थे. भारत में भी आस्था परवान चढ़ी थी और राम मन्दिर निर्माण के बहाने विकारी लोग सत्ता पर कब्ज़ा जमाने का मार्ग प्रशस्त कर चुके थे. जिसका पहला निशाना था भारत के ‘सर्वधर्म समभाव’ के बुनियादी सिद्धांत पर. 6 दिसम्बर,1992 सर्वधर्म समभाव वाले भारत के लिए काला दिवस है. भीषण साम्प्रदायिक दंगों ने भारत को फूंक दिया था जिसमें धर्मनिरपेक्षता खाक हो गई थी और धर्मान्धता ने अपने पैर पसार लिए थे. ऐसे समय में इंसानियत की पुकार बना ‘थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’ नाट्य सिद्धांत.

जब भूमंडलीकरण सारे सिद्धांतों को नष्ट कर रहा हो ऐसे समय में एक नाट्य सिद्धांत का सूत्रपात कर उसको क्रियान्वित करने की चुनौती किसी हिमालय से कम नहीं थी. पर जिस सिद्धांत की बुनियाद ‘दर्शक’ हो उसका जीवित होना लाजमी है. भूमंडलीकरण का अर्थ है एकाधिकारवाद,वर्चस्वाद,विविधता का खात्मा. किसी भी विरोध को शत्रु मानना. सवाल पूछने वाले को राष्टद्रोही करार देना. मनुष्य को वस्तु मानना और उसे मानव अधिकारों से बेदखल कर एक झुण्ड एक रूप में स्थापित करना जिसका नाम है मार्केट जो सत्ताधीशों के लिए भेड़ों की भीड़ होती है जयकारा लगाने के लिए.

भूमंडलीकरण ने पूरे विश्व के जनकल्याण,मानव अधिकार,न्याय और संवैधानिक सम्प्रभुता के सारे संस्थानों को ध्वस्त कर दिया है. सरकारों को मुनाफ़े की दलाली करने का महत्वपूर्ण दायित्व सौंपा है. मीडिया को सिर्फ़ सरकार के जनसम्पर्क विभाग की ज़िम्मेदारी दी. उसका काम सरकार से सवाल पूछना नहीं सरकार का जयकारा लगाना है. ऐसे समय में जनता की आवाज़ का मंच बना थिएटर ऑफ़ रेलेवंस!

विगत 27 वर्षों से सतत सरकारी, गैर सरकारी, कॉर्पोरेटफंडिंग या किसी भी देशी विदेशी अनुदान के बिना अपनी प्रासंगिकता और अपने मूल्य के बल पर यह रंग विचार देश विदेश में अपना दमख़म दिखा रहा है, और देखने वालों को अपने होने का औचित्य बतला रहा है. सरकार के 300 से 1000 करोड़ के अनुमानित संस्कृति संवर्धन बजट के बरक्स दर्शकसहभागिता पर खड़ा है थिएटर ऑफ़ रेलेवंसरंग आन्दोलन मुंबई से लेकर मणिपुर तक.

थिएटर ऑफ़ रेलेवंसने जीवन को नाटक से जोड़कर रंग चेतना का उदय करके उसे जनसे जोड़ा है। अपनी नाट्य कार्यशालाओं में सहभागियों को मंच,नाटक और जीवन का संबंध,नाट्य लेखन,अभिनय, निर्देशन,समीक्षा,नेपथ्य,रंगशिल्प,रंगभूषा आदि विभिन्न रंग आयामों पर प्रशिक्षित किया है और कलात्मक क्षमता को दैवीय वरदान से हटाकर कर वैज्ञानिक दृष्टिकोण की तरफ मोड़ा है। पिछले 27 सालों में 16 हजार से ज्यादा रंगकर्मियों ने 1000 कार्यशालाओं में हिस्सा लिया है । जहाँ पूंजीवादी कलाकार कभी भी अपनी कलात्मक सामाजिक जिम्मेदारी नहीं उठाते, इसलिए वे कलाकला के लिए के चक्रव्यहू में फंसे हुए हैं और भोगवादी कला की चक्की में पिस कर ख़त्म हो जा रहे हैं, वहीं थिएटर ऑफ़ रेलेवंस ने कलाकला के लिए वाली औपनिवेशिक और पूंजीवादी सोच के चक्रव्यहू को अपने तत्व और सार्थक प्रयोगों से तोड़ा,हजारों रंग संकल्पनाओं को रोपा और अभिव्यक्त किया है । अब तक 28 नाटकों का 16,000 से ज्यादा बार मंचन किया है.

भूमंडलीकरण पूंजीवादी सत्ता का विचारको कुंद, खंडित और मिटाने का षड्यंत्र है. तकनीक के रथ पर सवार होकर विज्ञान की मूल संकल्पनाओं के विनाश की साज़िश है. मानव विकास के लिए पृथ्वी और पर्यावरण का विनाश, प्रगतिशीलता को केवल सुविधा और भोग में बदलने का खेल है. फासीवादी ताकतों का बोलबाला है  भूमंडलीकरण ! लोकतंत्र, लोकतंत्रीकरण की वैधानिक परम्पराओं का मज़ाक है भूमंडलीकरण”! ऐसे भयावह दौर में इंसान बने रहना एक चुनौती है... इस चुनौती के सामने खड़ा है थिएटर ऑफ़ रेलेवंसनाट्य दर्शन.

विगत 27 वर्षों से साम्प्रदायिकता पर दूर से किसी ने आवाज़ दी’,बाल मजदूरी पर मेरा बचपन’,घरेलु हिंसा पर द्वंद्व’, अपने अस्तित्व को खोजती हुई आधी आबादी की आवाज़ मैं औरत हूँ’ ,‘लिंग चयनके विषय पर लाडली’ ,जैविक और भौगोलिक विविधता पर बी-७” ,मानवता और प्रकृति के नैसर्गिक संसाधनो के निजीकरण के खिलाफ ड्राप बाय ड्राप :वाटर”,मनुष्य को मनुष्य बनाये रखने के लिए गर्भ” ,किसानो की आत्महत्या और खेती के विनाश पर किसानो का संघर्ष’ , कलाकारों को कठपुतली बनाने वाले इस आर्थिक तंत्र से कलाकारों की मुक्ति के लिए अनहद नाद-अन हर्ड साउंड्स ऑफ़ युनिवर्स” , शोषण और दमनकारी पितृसत्ता के खिलाफ़ न्याय, समता और समानता की हुंकार न्याय के भंवर में भंवरी” , समाज में राजनैतिक चेतना जगाने के लिए राजगतिनाटक के माध्यम से फासीवादी ताकतों से जूझ रहा है!

भूमंडलीकरण और फासीवादी ताकतें स्वराज और समताके विचार को ध्वस्त कर समाज में विकार पैदा करती हैं जिससे पूरा समाज आत्महीनतासे ग्रसित होकर हिंसा से लैस हो जाता है. और आज तो विकारवादी पूरे बहुमत से सता पर काबिज़ है. हिंसा मानवता को नष्ट करती है और मनुष्य में इंसानियतका भाव जगाती है कला. कला जो मनुष्य को मनुष्यता का बोध कराए...कला जो मनुष्य को इंसान बनाए!

पूरे विश्व में मनहूसियत छाई है. भूमंडलीकरण की अफ़ीम ने तर्क को खत्म कर मनुष्य को आस्था की गोद में लिटा दिया है. निर्मम और निर्लज्ज पूंजी की सत्ता मानवता को रौंद रही है. विकास पृथ्वी को लील रहा है. विज्ञान तकनीक के बाज़ार में किसी जिस्मफरोश की तरह बिक रही है. भारत में इसके नमूने चरम पर हैं और समझ के बाहर हैं.चमकी बुखार से बच्चों की मौत की सुनामी और चंद्रयान की उड़ान. दस लाख का सूट और वस्त्रहीन समाज. लोकतंत्र की सुन्दरता को बदसूरत करते भीड़तन्त्र और धनतंत्र. न्याय के लिए दर दर भटकता हाशिए का मनुष्य और अपने वजूद के लिए लड़ता सुप्रीमकोर्ट. संविधान की रोटी खाने के लिए नियुक्त नौकरशाह आज अपने कर्मों से राजनेताओं की लात खाने को अभिशप्त. चौथी आर्थिक महासत्ता और बेरोजगारों की भीड़. जब जब मानव का तन्त्र असफ़ल होता है तब तब अंधविश्वास आस्था का चोला ओढ़कर विकराल हो समाज को ढक लेता है. लम्पट भेड़ों के दम पर सत्ताधीश बनते हैं और मीडिया पीआरओ. समाज एक फ्रोजन स्टेटमें चला जाता है. जिसे तोड़ने के लिए मनुष्य को अपने विकार से मुक्ति के लिए विचार और विवेकको जगाना पड़ता है. विचार का पेटंट रखने वाले वामपंथी जड़ता और प्रतिबद्धता के फर्क को नहीं समझ पा रहे. आलोचना के नाम पर सांड की तरह बिदक जाते है  गांधी के विवेक की राजनैतिक विरासत मिटटी में मिली हुई है. ऐसे में समाज की फ्रोजन स्टेटको तोड़ने के लिए कलाकारों को विवेक की मिटटी में विचार का पौधा लगाना होगा. समाज की फ्रोजन स्टेटको तोड़ने के लिए ‘थिएटर ऑफ़ रेलेवंसअपनी कलात्मकता से विवेक की मिटटी में विचार का पौधा लगाने के लिए प्रतिबद्ध है!

 

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Manjul Bhardwaj’s new Marathi Play ‘Lok-Shastra Savitri ' the Yalgar of Samta !

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