Sunday, September 27, 2020

समाज की ‘फ्रोजन स्टेट’ को तोड़ने के लिए थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’ अपनी कलात्मकता से विवेक की मिटटी में विचार का पौधा लगाने के लिए प्रतिबद्ध!- मंजुल भारद्वाज

 



समाज की ‘फ्रोजन स्टेटको तोड़ने के लिए थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’ अपनी कलात्मकता से विवेक की मिटटी में विचार का पौधा लगाने के लिए प्रतिबद्ध!- मंजुल भारद्वाज

27 वर्ष पहले यानी 1992 में भूमंडलीकरण का अजगर प्राकृतिक संसाधनों को लीलने के लिए अपना फन विश्व में फैला चुका था. पूंजीवादियों ने दुनिया को ‘खरीदने और बेचने’ तक सीमित कर दिया. तर्क के किले ढह चुके थे और आस्था के मन्दिरों का निर्माण करने के लिए आन्दोलन शुरू हो चुके थे. भारत में भी आस्था परवान चढ़ी थी और राम मन्दिर निर्माण के बहाने विकारी लोग सत्ता पर कब्ज़ा जमाने का मार्ग प्रशस्त कर चुके थे. जिसका पहला निशाना था भारत के ‘सर्वधर्म समभाव’ के बुनियादी सिद्धांत पर. 6 दिसम्बर,1992 सर्वधर्म समभाव वाले भारत के लिए काला दिवस है. भीषण साम्प्रदायिक दंगों ने भारत को फूंक दिया था जिसमें धर्मनिरपेक्षता खाक हो गई थी और धर्मान्धता ने अपने पैर पसार लिए थे. ऐसे समय में इंसानियत की पुकार बना ‘थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’ नाट्य सिद्धांत.

जब भूमंडलीकरण सारे सिद्धांतों को नष्ट कर रहा हो ऐसे समय में एक नाट्य सिद्धांत का सूत्रपात कर उसको क्रियान्वित करने की चुनौती किसी हिमालय से कम नहीं थी. पर जिस सिद्धांत की बुनियाद ‘दर्शक’ हो उसका जीवित होना लाजमी है. भूमंडलीकरण का अर्थ है एकाधिकारवाद,वर्चस्वाद,विविधता का खात्मा. किसी भी विरोध को शत्रु मानना. सवाल पूछने वाले को राष्टद्रोही करार देना. मनुष्य को वस्तु मानना और उसे मानव अधिकारों से बेदखल कर एक झुण्ड एक रूप में स्थापित करना जिसका नाम है मार्केट जो सत्ताधीशों के लिए भेड़ों की भीड़ होती है जयकारा लगाने के लिए.

भूमंडलीकरण ने पूरे विश्व के जनकल्याण,मानव अधिकार,न्याय और संवैधानिक सम्प्रभुता के सारे संस्थानों को ध्वस्त कर दिया है. सरकारों को मुनाफ़े की दलाली करने का महत्वपूर्ण दायित्व सौंपा है. मीडिया को सिर्फ़ सरकार के जनसम्पर्क विभाग की ज़िम्मेदारी दी. उसका काम सरकार से सवाल पूछना नहीं सरकार का जयकारा लगाना है. ऐसे समय में जनता की आवाज़ का मंच बना थिएटर ऑफ़ रेलेवंस!

विगत 27 वर्षों से सतत सरकारी, गैर सरकारी, कॉर्पोरेटफंडिंग या किसी भी देशी विदेशी अनुदान के बिना अपनी प्रासंगिकता और अपने मूल्य के बल पर यह रंग विचार देश विदेश में अपना दमख़म दिखा रहा है, और देखने वालों को अपने होने का औचित्य बतला रहा है. सरकार के 300 से 1000 करोड़ के अनुमानित संस्कृति संवर्धन बजट के बरक्स दर्शकसहभागिता पर खड़ा है थिएटर ऑफ़ रेलेवंसरंग आन्दोलन मुंबई से लेकर मणिपुर तक.

थिएटर ऑफ़ रेलेवंसने जीवन को नाटक से जोड़कर रंग चेतना का उदय करके उसे जनसे जोड़ा है। अपनी नाट्य कार्यशालाओं में सहभागियों को मंच,नाटक और जीवन का संबंध,नाट्य लेखन,अभिनय, निर्देशन,समीक्षा,नेपथ्य,रंगशिल्प,रंगभूषा आदि विभिन्न रंग आयामों पर प्रशिक्षित किया है और कलात्मक क्षमता को दैवीय वरदान से हटाकर कर वैज्ञानिक दृष्टिकोण की तरफ मोड़ा है। पिछले 27 सालों में 16 हजार से ज्यादा रंगकर्मियों ने 1000 कार्यशालाओं में हिस्सा लिया है । जहाँ पूंजीवादी कलाकार कभी भी अपनी कलात्मक सामाजिक जिम्मेदारी नहीं उठाते, इसलिए वे कलाकला के लिए के चक्रव्यहू में फंसे हुए हैं और भोगवादी कला की चक्की में पिस कर ख़त्म हो जा रहे हैं, वहीं थिएटर ऑफ़ रेलेवंस ने कलाकला के लिए वाली औपनिवेशिक और पूंजीवादी सोच के चक्रव्यहू को अपने तत्व और सार्थक प्रयोगों से तोड़ा,हजारों रंग संकल्पनाओं को रोपा और अभिव्यक्त किया है । अब तक 28 नाटकों का 16,000 से ज्यादा बार मंचन किया है.

भूमंडलीकरण पूंजीवादी सत्ता का विचारको कुंद, खंडित और मिटाने का षड्यंत्र है. तकनीक के रथ पर सवार होकर विज्ञान की मूल संकल्पनाओं के विनाश की साज़िश है. मानव विकास के लिए पृथ्वी और पर्यावरण का विनाश, प्रगतिशीलता को केवल सुविधा और भोग में बदलने का खेल है. फासीवादी ताकतों का बोलबाला है  भूमंडलीकरण ! लोकतंत्र, लोकतंत्रीकरण की वैधानिक परम्पराओं का मज़ाक है भूमंडलीकरण”! ऐसे भयावह दौर में इंसान बने रहना एक चुनौती है... इस चुनौती के सामने खड़ा है थिएटर ऑफ़ रेलेवंसनाट्य दर्शन.

विगत 27 वर्षों से साम्प्रदायिकता पर दूर से किसी ने आवाज़ दी’,बाल मजदूरी पर मेरा बचपन’,घरेलु हिंसा पर द्वंद्व’, अपने अस्तित्व को खोजती हुई आधी आबादी की आवाज़ मैं औरत हूँ’ ,‘लिंग चयनके विषय पर लाडली’ ,जैविक और भौगोलिक विविधता पर बी-७” ,मानवता और प्रकृति के नैसर्गिक संसाधनो के निजीकरण के खिलाफ ड्राप बाय ड्राप :वाटर”,मनुष्य को मनुष्य बनाये रखने के लिए गर्भ” ,किसानो की आत्महत्या और खेती के विनाश पर किसानो का संघर्ष’ , कलाकारों को कठपुतली बनाने वाले इस आर्थिक तंत्र से कलाकारों की मुक्ति के लिए अनहद नाद-अन हर्ड साउंड्स ऑफ़ युनिवर्स” , शोषण और दमनकारी पितृसत्ता के खिलाफ़ न्याय, समता और समानता की हुंकार न्याय के भंवर में भंवरी” , समाज में राजनैतिक चेतना जगाने के लिए राजगतिनाटक के माध्यम से फासीवादी ताकतों से जूझ रहा है!

भूमंडलीकरण और फासीवादी ताकतें स्वराज और समताके विचार को ध्वस्त कर समाज में विकार पैदा करती हैं जिससे पूरा समाज आत्महीनतासे ग्रसित होकर हिंसा से लैस हो जाता है. और आज तो विकारवादी पूरे बहुमत से सता पर काबिज़ है. हिंसा मानवता को नष्ट करती है और मनुष्य में इंसानियतका भाव जगाती है कला. कला जो मनुष्य को मनुष्यता का बोध कराए...कला जो मनुष्य को इंसान बनाए!

पूरे विश्व में मनहूसियत छाई है. भूमंडलीकरण की अफ़ीम ने तर्क को खत्म कर मनुष्य को आस्था की गोद में लिटा दिया है. निर्मम और निर्लज्ज पूंजी की सत्ता मानवता को रौंद रही है. विकास पृथ्वी को लील रहा है. विज्ञान तकनीक के बाज़ार में किसी जिस्मफरोश की तरह बिक रही है. भारत में इसके नमूने चरम पर हैं और समझ के बाहर हैं.चमकी बुखार से बच्चों की मौत की सुनामी और चंद्रयान की उड़ान. दस लाख का सूट और वस्त्रहीन समाज. लोकतंत्र की सुन्दरता को बदसूरत करते भीड़तन्त्र और धनतंत्र. न्याय के लिए दर दर भटकता हाशिए का मनुष्य और अपने वजूद के लिए लड़ता सुप्रीमकोर्ट. संविधान की रोटी खाने के लिए नियुक्त नौकरशाह आज अपने कर्मों से राजनेताओं की लात खाने को अभिशप्त. चौथी आर्थिक महासत्ता और बेरोजगारों की भीड़. जब जब मानव का तन्त्र असफ़ल होता है तब तब अंधविश्वास आस्था का चोला ओढ़कर विकराल हो समाज को ढक लेता है. लम्पट भेड़ों के दम पर सत्ताधीश बनते हैं और मीडिया पीआरओ. समाज एक फ्रोजन स्टेटमें चला जाता है. जिसे तोड़ने के लिए मनुष्य को अपने विकार से मुक्ति के लिए विचार और विवेकको जगाना पड़ता है. विचार का पेटंट रखने वाले वामपंथी जड़ता और प्रतिबद्धता के फर्क को नहीं समझ पा रहे. आलोचना के नाम पर सांड की तरह बिदक जाते है  गांधी के विवेक की राजनैतिक विरासत मिटटी में मिली हुई है. ऐसे में समाज की फ्रोजन स्टेटको तोड़ने के लिए कलाकारों को विवेक की मिटटी में विचार का पौधा लगाना होगा. समाज की फ्रोजन स्टेटको तोड़ने के लिए ‘थिएटर ऑफ़ रेलेवंसअपनी कलात्मकता से विवेक की मिटटी में विचार का पौधा लगाने के लिए प्रतिबद्ध है!

 

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