नाटक की नायिका अश्विनी नान्देडकर ने तो जैसे अभिनय के नौ
रसोँ की प्रस्तुति ही अपनी भंगिमाओँ से की है। समाज के अराजक तत्वोँ,दमघोंटू वातावरण मेँ प्रकृति के उदात्त स्वरूपोँ के दर्शन
कराता,आकाशगँगा,सितारे,ग्रह,नक्षत्र,उपग्रह,सूर्य,चाँद,धरती और सागर की बूँद बूँद सुँदरता को उकेरता मानव समाज को
एक दिशा देता है नाटक गर्भ.......”कि ईश्वर तुम्हारे
अँदर है,मँदिर,मस्जिद,गुरुद्वारे और गिरिजाघरोँ की खाक छानते क्या तुम अपने अँदर के ईश्वर को पह्चान
पाये हो? क्या देख पाये हो अपने हाथोँ से सरकते पलोँ को जो तुम्हे जीवन का अर्थ समझा
गये हैं ..... मंजुल की कलम ने कई सवाल उठाए हैँ जवाब उसी मेँ निहित भी हैँ जिन्हे खोजता है मनुष्य
जीवन की आपाधापी मेँ .....पर क्या खोज पाता है ?
“गर्भ” मेँ सुरक्षित वह
भ्रूण जो विकसित हो रहा है एक नियत कालखन्ड मेँ बाहर की दुनिया मेँ पदार्पण करने
के लिये लेकिन अभिमन्यु की तरह उसने माँ के गर्भ मेँ ही उन चक्रव्यूहोँ को समझ
लिया है जिन्हे ज़िन्दगी भर उसे भेदना है। यही मानव की नियति है।
गर्भ के ज़रिये कई अनकहे बिम्ब तैर आते हैँ मानव की दुनिया मेँ जबकि उन बिम्बोँ
को वह ज़िन्दगी भर समझ नही पाता क्योँकि वो शरीर के अन्दर जीता है और इन बिम्बोँ की
पुकार है कि शरीर के बाहर जियो तब अपने अस्तित्व को समझ पाओगे। गर्भस्थ मानव
अवसरवादी,कायर,कट्टरवादी, संवेदनहीन होकर नहीँ जीना चाह्ता इसलिए वह गर्भ मेँ अपने को सुरक्षित पाता है
।
मंजुल भारद्वाज ने इस नाटक के ज़रिये एक सन्देश दिया है कि
प्रकृति का दोहन , नदियों का प्रदूषण, जल ,जंगल और ज़मीन पर
कब्ज़ा कर अपने अहंकार और ताकत को बढ़ाकर मनुष्य ने एक
भस्मासुरी सभ्यता को जन्म दिया है । हमें समय रहते चेतना होगा वरना हमारा
विनाश बहुत निकट है ।
“गर्भ” प्रतीकात्मक नाटक है और गर्भ को प्रतीक बनाकर अपनी बात कहने मेँ मंजुल सफल रहे हैँ । नाटक के अन्य कलाकार सायली पावसकर, लवेश सुम्भे और श्रद्धा मोहिते ने भी अपनी भूमिकाओँ के साथ न्याय किया है । प्रख्यात संगीतकार नीला भागवत के संगीत ने नाटक के कथानक और दृश्योँ को असरदार तरीके से संयोजित किया है । “गर्भ ” के सँवाद सुन्दर ,सटीक शब्दोँ के कारण बहुत प्रभावशाली हैँ जिसकी प्रत्येक पँक्ति मेँ मानवता के हाहाकार के पार्श्व से मानवीय मूल्योँ के आशावादी स्वर गूँजते हैँ।
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