नाटक – “मैं औरत हूँ !” – अपने होने , उसको स्वीकारने और अपने ‘अस्तित्व’ को विभिन्न रूपों में खंगोलने,अन्वेषित करने की यात्रा है . नाटक ‘मैं
औरत हूँ!’ पितृसत्तात्मक भारतीय समाज की सोच , बधनों , परम्पराओं , मान्यताओं को
सिरे से नकारता है और उससे खुली चुनौती देकर अपने ‘स्वतंत्र मानवीय अस्तित्व’ को
स्वीकारता है . नाटक महिला को पुरुष की बराबरी के आईने में नहीं देखता अपितु
‘नारी’ के अपने ‘स्वतंत्र मानवीय अस्तित्व’ को रेखांकित और अधोरेखित करता है .
ये नाटक ‘कलाकार और
दर्शकों’ के लिए आत्म मुक्तता का माध्यम है . नाटक में अभिनय करते हुए ‘जेंडर
समानता’ की संवेदनशीलता से कलाकार रूबरू होतें हैं और नाटक देखते हुए ‘दर्शक’
‘जेंडर बायस’ से मुक्त होते हैं . नाटक ‘मैं औरत हूँ’ कलाकार और दर्शक पर अद्धभुत
प्रभाव छोड़ता है . ‘नारी’ मुक्ति का बिगुल बजा उसे अपने ‘अधिकार’ के लिए संघर्ष
करने को प्रेरित कर ‘सक्षम’ करता है . इस नाटक की लेखन शैली अनोखी है . ‘नारी
विमर्श’ पर लिखे इस नाटक को एक कलाकार भी परफ़ॉर्मर कर सकती है / सकता है और अनेक
कलाकार भी .. इस नाटक की ‘हिंदी’ के अलावा अलग –अलग भाषाओँ में देश भर में हजारों
प्रस्तुतियां हो चुकी हैं और निरंतर हो रही हैं ...
सबसे दिलचस्प बात ये है की
बिना अपना हुलिया बदले पुरुष कलाकारों ने महिला दर्शकों से खचाखच भरे नाट्यगृह में
इस नाटक को मंचित किया और ‘दर्शकों’ को नाटक की ‘आत्मा’ से जोड़ा . महिला कलाकार तो
इस नाटक की ‘आत्मा को झकझोर’ देने वाली कलात्मक प्रस्तुतियों से ‘दर्शकों’ को
‘जेंडर समानता’ के लिए उत्प्रेरित करती हैं !
प्रथम मंचन : 11 अप्रैल ,
1998
उम्मीद है आप सब को रंग साधना के यह पड़ाव
नई रंग प्रेरणा दे पाएं...
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“थिएटर ऑफ रेलेवेंस” नाट्य सिद्धांत का सूत्रपात सुप्रसिद्ध
रंगचिंतक, "मंजुल भारद्वाज" ने 12 अगस्त 1992 में किया और तब से उसका अभ्यास और क्रियान्वयन वैश्विक स्तर पर कर रहे हैं. “थिएटर ऑफ़ रेलेवंस “रंग सिद्धांत के अनुसार
रंगकर्म ‘निर्देशक और अभिनेता केन्द्रित होने की बजाय “दर्शक और लेखक केन्द्रित हो क्योंकि दर्शक
सबसे बड़ा और शक्तिशाली रंगकर्मी है.
पूंजीवादी कलाकार कभी भी अपनी कलात्मक सामाजिक जिम्मेदारी नहीं लेते इसलिए “कला – कला के लिए” के चक्रव्यहू में फंसे हुए हैं और भोगवादी कला की चक्की में पिस कर ख़त्म हो जाते हैं . “ थिएटर ऑफ़ रेलेवंस “ ने “कला – कला के लिए” वाली औपनिवेशिक और पूंजीवादी सोच के चक्रव्यहू को अपने तत्व और सार्थक प्रयोगों से तोड़ा (भेदा) है और “दर्शक” को जीवन को बेहतर और शोषण मुक्त बनाने वाली प्रतिबद्ध ,प्रगतिशील,समग्र और समर्पित रंग दृष्टि से जोड़ा है .
“ थिएटर ऑफ़ रेलेवंस “ अपने तत्व और सकारात्मक प्रयोगों से एक बेहतर , सुंदर और मानवीय विश्व के निर्माण के लिए सांस्कृतिक चेतना का निर्माण कर सांस्कृतिक क्रांति के लिए प्रतिबद्ध है !
पूंजीवादी कलाकार कभी भी अपनी कलात्मक सामाजिक जिम्मेदारी नहीं लेते इसलिए “कला – कला के लिए” के चक्रव्यहू में फंसे हुए हैं और भोगवादी कला की चक्की में पिस कर ख़त्म हो जाते हैं . “ थिएटर ऑफ़ रेलेवंस “ ने “कला – कला के लिए” वाली औपनिवेशिक और पूंजीवादी सोच के चक्रव्यहू को अपने तत्व और सार्थक प्रयोगों से तोड़ा (भेदा) है और “दर्शक” को जीवन को बेहतर और शोषण मुक्त बनाने वाली प्रतिबद्ध ,प्रगतिशील,समग्र और समर्पित रंग दृष्टि से जोड़ा है .
“ थिएटर ऑफ़ रेलेवंस “ अपने तत्व और सकारात्मक प्रयोगों से एक बेहतर , सुंदर और मानवीय विश्व के निर्माण के लिए सांस्कृतिक चेतना का निर्माण कर सांस्कृतिक क्रांति के लिए प्रतिबद्ध है !
कला को समर्पित आप के जज्बे को प्रणाम ।
ReplyDeleteनिरुपमा वर्मा जी बहुत बहुत आभार !
Deleteकला को समर्पित आप के जज्बे को प्रणाम ।
ReplyDelete'Kala se kranti' ki muhim mai hum bhi sehbhagi huai... yeh gumaan rehega, Sir - yogeshwar
ReplyDeleteहां जी योगेश्वर ..आप साथ है ..सहभागी है ..हम हैं !
Delete'Kala se kranti' ki muhim mai hum bhi sehbhagi huai... yeh gumaan rehega, Sir - yogeshwar
ReplyDeleteFirst Synopis of the play I read which is not showing the comparison between men and women but truly revealing about the own rights of womens.
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