Friday, October 16, 2020

अमूर्त के मूर्त होने का कला बोध ही सौन्दर्य है! – मंजुल भारद्वाज

 अमूर्त के मूर्त होने का कला बोध ही सौन्दर्य है! – मंजुल भारद्वाज


कला का अहसास ही सौन्दर्य है! दृष्टि,विचार,चेतना का अमूर्त जब मूर्त होता है तब कला जन्मती है. कला का जन्म ही सौन्दर्य है. कला के जन्मने का शास्त्र ही उसका सौन्दर्य शास्त्र है. कला मनुष्य को मनुष्य बनाती है. मनुष्य की आत्महीनता,विकार और विध्वंसक वृति को कला आत्मबल,विचार और विवेक में परिवर्तित करती है.थिएटर ऑफ़ रेलेवंस कला के मूल उद्देश्य के क्रियान्वन के लिए प्रतिबद्ध है. थिएटर ऑफ़ रेलेवंस के नाटकों का सौन्दर्य उसके मूल उद्देश्य से उत्प्रेरित होता है. रंगमंच की प्रस्थापित रूढ़ियों को तोड़ता है. दर्शक की चेतना को अमूर्त से जोड़ता है. कल्पना शक्ति से नाटक के अमूर्त को मूर्त करते हुए कलाकारों की देह और अभिनय प्रतिभा को तरंगित कर स्थूल सभाग्रह को स्पंदित करता है. इस प्रकिया में देह के दृश्य बंध,मंच की भूमिति, नाटक के दृष्टिकोण के अनुसार रंगमंच के कोण का उपयोग अद्भूत होते हैं. कलाकारों की आवाज़,मंच आवागमन,मंच कार्य सिद्धि,आपसी समन्वय, रंगमंच के स्पर्श से स्पंदित होते हैं यह स्पंदन नाटक के मूल पाठ और मंचन के ध्येय
से उत्प्रेरित होता है. नाटक जड़ नहीं,स्थूल नहीं, जीवन का ‘एक जीवित घटनाक्रम है’ इस घटनाक्रम की आत्मा होती है कल्पना.दर्शक जानता है वो नाटक यानी झूठ देख रहा है. सम्प्रेष्ण की कल्पना सिद्धि से थिएटर ऑफ़ रेलेवंस असत्य से अ का मुखौटा हटा दर्शकों को सत्य से रूबरू करता है.

Friday, October 9, 2020

रंगचिंतक मंजुल भारद्वाज का नाटक राजगति ‘राजनीति गंदी है’ के कलंक को धोता है !



 नाटक राजगति ‘राजनीति गंदी है’ के कलंक को धोता है और देशवासियों को राजनीति में विवेक सम्मत सहभगिता के लिए प्रेरित करता है!

रंगचिंतक मंजुल भारद्वाज का नाटक राजगति भारत और विश्व की अलग अलग राजनैतिक विचारधाराओं के अंतर्विरोधों को विश्लेषित कर मानव कल्याण के लिए उनके समन्वय की अनिवार्यता को रेखांकित करता है. नाटक भूमंडलीकरण के विनाश और विकास के पाखंड पर प्रहार करता है. कैसे भूमंडलीकरण ने मनुष्य को खरीदने और बेचने की वस्तु में बदलकर विश्व की लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं को पूंजीवाद की कठपुतली बना, विकारी लोगों को सत्ता में बैठा दिया है. यह विकारी लोग पूरी पृथ्वी और मनुष्यता को लील रहे हैं.
नाटक राजगति केवल सत्ता परिवर्तन के लिए होने वाले आंदोलनों की निरर्थकता को उजागर करता है. हाल ही में भारत में हुए एक भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से सत्ता तो बदल गई. पर महाभ्रष्ट और विकारी उस पर विराजमान हो गए जो अर्थव्यवस्था के साथ साथ लोकतान्त्रिक संस्थाओं का ध्वंस कर संविधान के अवसान में दिन रात लगे हुए हैं.
नाटक राजगति जनता को अपनी राजनैतिक मुक्ति के लिए चार सूत्र देता है सत्ता,व्यवस्था,राजनैतिक चरित्र और राजनीति. सत्ता में हमेशा कालिख रहेगी चाहे वो किसी की भी हो और कोई भी हो, व्यवस्था अपनी जड़ता से किसी भी परिवर्तन को प्रभावहीन बना देती है, राजनैतिक चरित्र गढ़े बिना पूरी राजनैतिक प्रक्रिया पाखंड का शिकार होती है. इसलिए सत्ता,व्यवस्था,राजनैतिक चरित्र और राजनीति के चारों आयामों को एक साथ समझना अनिवार्य है. नाटक राजगति ‘राजनीति’ को पवित्र नीति मानता है. जनता से राजनीति में विवेकपूर्ण सहभागिता की अपील करता है. राजनीति सत्ता,व्यवस्था और राजनैतिक चरित्र की गंदगी को साफ़ करने की नीति है.
हर भारतवासी में राजनीति की पवित्र मशाल को जलाकर स्वतंत्रता सेनानियों ने देश को गुलामी से मुक्त कराया. पर चंद सत्ता लोलुपों,सत्ता के दलालों ने ‘राजनीति गंदी है’ के कलंक को सुनियोजित षड्यंत्र से 132 करोड़ देशवासियों के माथे पर चिपका दिया है. जिसकी वजह से जनता राजनैतिक प्रक्रिया में सहभागी नहीं होती. कोई सहभागी हो रहा है तो सिर्फ़ सत्ता लोलुप जो धनपशुओं के बल पर वोट खरीद कर हर चुनाव में लोकतंत्र को कलंकित करता है.
एक ऐसे विध्वंसक काल में जब विकारी सत्ताधीश जनता को उसी के मल,मवाद,विकार और पाखंड में धंसा कर, राष्ट्रवाद के नाम पर वोट लेकर, समाज को उन्मादी भीड़ बना, जनता को कूट रहा हो, तब नाटक राजगति देशवासियों को देश का मालिक होने का अहसास दिला संविधान सम्मत,विविधता के विधाता भारत के निर्माण की पैरवी करता है. राजगति नाटक ‘राजनीति गंदी है’ के कलंक को धोता है और देशवासियों को राजनीति में विवेक सम्मत सहभगिता के लिए प्रेरित करता है .

Tuesday, October 6, 2020

मैं कौन हूँ! – मंजुल भारद्वाज

 


मैं कौन हूँ! – मंजुल भारद्वाज

एक सवाल अंतर्मन में गूंज रहा है... मैं कौन हूँ! यह सवाल इसलिए भी कौंध रहा है क्योंकि जिस समाज में आज जीवित हूँ वो फ्रोजन स्टेट में है. तर्क से परे आस्था के अंधकार में सोया हुआ. अपनी पहचान,आवाज़,अस्तित्व और अधिकारों को बेचकर विकास खरीदता हुआ यह समाज विनाश में चारों ओर से धस गया है. सरेआम बोले हुए झूठ को सच मानता है. बार बार बोले हुए झूठ पर सवाल नहीं करता.बस भेड़ बन जयकारा लगाता है. आदमी के भेष में अपने जिस्म को ढ़ोती हुई भेड़ों को मैंने पहले कभी नहीं देखा. बहुत पार्टियों की सरकार आई और गई. पर जुमले और झूठ पर टंगी सरकार पहली बार देखी है. देश की जनता को भेड़ बनते पहली बार देखा है. संविधान के ‘WE THE PEOPLE’ को असहाय और बिलखते हुए पहली बार देखा है. देश के एक सूबे को विकास के नाम पर खत्म कर देने के षड्यंत्र को पहली बार देखा है. गांधी को फूल माला चढाते हुए सत्ताधीश को ‘मैं भी गोडसे’ बोलते हुए भी पहली बार देखा है. देश के निर्माताओं को राष्टद्रोही करार देने वाले तानाशाह और उनको सोशल मीडिया पर प्रचारित करते समाज को पहली बार देखा है ... देश के संविधान को नमन कर उसको खत्म करने वाले सत्ताधीश को पहली बार देखा है...
पूरा समाज फ्रोजन स्टेट में है ...और अपनी चेतना में मैं दिन रात अकेला जल रहा हूँ ... उस जलती हुई रौशनी में यहाँ तक के सफ़र का अवलोकन करता हूँ ... 2 अक्तूबर को गाँधी से बात हुई ...उनसे पूछा बापू क्या मिला आपको? वो मुस्कुराये जो तुम्हें मिला ‘अकेलापन और चंद सवालों के समाधान के लिए अपनी चेतना की आग में जलते रहने का इनाम! ... 28 सितम्बर को भगत सिंह मिले उनसे पूछा क्यों फांसी पर चढ़े? ...उन्होंने कहा रौशनी के लिए खुद जलना पड़ता है ... 14 अप्रैल को अम्बेडकर से बात हुई उनसे पूछा क्यों संविधान बनाया? उन्होंने कहा ‘सत्ता की चेतना’ जगाने के लिए ... तीनो का जवाब जलती हुई मशाल में घी डाल गया... आग़ और भड़क गई.. ये तो चले गए .. इनको जो करना था वो कर गये ...सवाल फिर सामने खड़ा हो गया ..मैं कौन हूँ?
अपनी ही आग़ में जलते हुए यूँहीं बैठा था की मार्क्स से मुलाक़ात हो गई. उनसे पूछा क्यों तानशाहों की ढाल बने हुए हो सर्वहारा के नाम पर? वो कुछ बोलते इससे पहले ही उनके परम भक्त,उनके बारे में सारी किताबें पढ़ने का दावा करने वाले मुझ पर टूट पड़े... उन्होंने ऐलान किया तुम मार्क्स से सवाल नहीं कर सकते .. एक लम्बी किताबों की सूची देते हुए कहा जाओ इनको पढ़कर आओ फ़िर सवाल पूछना मार्क्स से ... चौपाल में मौजूद लोगों को मैंने निहारते हुए देखा..उन्होंने हाथ झटकते हुए कहा हमने मार्क्स को नहीं पढ़ा ..हम कुछ नहीं बोल सकते !
दुनिया और देश की मिटटी में खाक छानते हुए 50साल के जीवन और 28 वर्ष रंगकर्म, रंग मतलब विचार, विचारों का कर्म करते हुए एक एक मौसम को देखा और बदला है.पर भूमंडलीकरण के विध्वंस ने उस सारे बदलाव को ‘अर्थहीन’ कर दिया. क्या गांधी को सत्ता के बटवारे ने अर्थहीन कर दिया था? सवाल सुलझने की बजाए और उलझ गया ..मैं कौन हूँ? क्या खोज रहा हूँ?
अपने रंग सिद्धांत ‘थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’ पर लिखे नाटकों को लेकर जब 1992 के साम्प्रदायिक दंगों में जलती मानवीयता को बचाने निकला था अपने रंगकर्मियों के साथ तो भ्रमित दंगाइयों में कहीं दबी हुई इंसानियत थी ..इसलिए नाटक ने जब हाथों में तलवार लिए भीड़ को इंसानी आवाज़ दी तो उन्होंने तलवार फेंकते हुए कहा था ..इंसानियत जिंदाबाद! आज भीड़ पशु के नाम पर दिन दहाड़े सत्ताधीश के इशारे पर सुनियोजित ढंग से क़त्ल करती है.. बचाने वाले पुलिसवाले की कुल्हाड़ी और उसके ही सर्विस रिवाल्वर से सरेआम हत्या कर देती है और सत्ता हत्यारों को फूल माला पहनाती है .. और समाज मौन धारण कर लेता है... मौन से सवालों की आग़ और धधकती है ...
क्या खोज रहा हूँ मैं? मैं कौन हूँ! अपने ही घर में ..अपने ही टीवी में अपने ही पैसों से ...अपने ही को हर पल ..हर रोज़ हिन्दू मुसलमान में तक्सीम होते देख रहा हूँ .. अपने घर में निकम्मी महानगर पालिका की वजह से बारिश के पानी में डूबा हुआ बैठा हूँ मैं .. अपने ही पखाने को अपने घर में तैरता, सड़ता हुआ देख ... मैं सत्ताधीश का शौचालय पर भाषण सुन रहा हूँ ... सरदार पटेल के स्टेचू के नीचे देश को दरकते हुए देख रहा हूँ मैं ... सरदार सरोवर के पानी में डूबते भारतवासियों को देख रहा हूँ मैं...
मैं विकास खरीदते जिस्मों में चेतना जगाना चाहता हूँ ...राष्ट्रवाद की उन्मादी भीड़ में ‘इंसानियत’ जगाना चाहता हूँ ...अपनी विवशता को अपनी ताक़त बनाना चाहता हूँ ... एक गोली ..या फांसी के फंदे या राष्ट्रद्रोह के मुकदमें का स्वागत करते हुए अपने आसपास भारत खोजना चाहता हूँ मैं ..अपनी रंग चेतना से मूर्छित समाज में भारतीयता का भाव जगाना चाहता हूँ ..नेताओं की चाटुकारिता की बजाए जनता में देश का मालिक होने का अहसास पैदा करना चाहता हूँ .. नौकरशाहों को नेताओं का रक्षक होने की बजाए संविधान का रक्षक होने का फर्ज़ जगाना चाहता हूँ ..लहूलुहान न्यायपालिका में न्याय और सत्ताधीश में विवेक जगाना चाहता हूँ ....मैं भारतवासी हूँ ...भारत मैं संविधान सम्मत भारत का पुन:निर्माण करना चाहता हूँ ...मैं... मैं को हम में साकार करना चाहता हूँ !

Thursday, October 1, 2020

थिएटर ऑफ़ रेलेवंस :2 अक्तूबर गांधी जयंती पर : रंगकर्म,राजनीति और गांधी पर प्रखर राजनैतिक विश्लेषक धनंजय कुमार का लेख

 2 अक्तूबर गांधी जयंती पर : रंगकर्म,राजनीति और गांधी पर प्रखर राजनैतिक विश्लेषक धनंजय कुमार का लेख





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थिएटर ऑफ़ रेलेवंस.....

नेता ऐसे बनते हैं ! 

नेता आसमान से नहीं गिरते, न ही किसी फैक्ट्री में पैदा होते हैं. नेता ज़मीन में उगते हैं. संस्कारों, संवेदनाओं, वर्जनाओं और मर्यादाओं के बीच पलते हैं. शोषण-अन्याय को देखकर उद्वेलित होते हैं. खुद को मानवीय-सामजिक प्रयोगशाला में तपाते हैं, तब जाकर औरों के लिए यथासंभव सुगम राह ढूंढ पाते हैं. जबतक कमज़ोर व्यक्ति का दुःख आपको दुखी नहीं करता, बेचैन नहीं करता आप नेता नहीं हैं. 

गांधी की ही नेता होने की यात्रा देखिये, तो बहुत कुछ स्पष्ट होता है. गांधी बालपन में आम बच्चों जैसे ही थे, झूठ भी बोलते थे और जहाँ असहज महसूस करते थे, वहां से बचने की राह ढूंढते थे. इसी क्रम में मुम्बई कोर्ट में महीनों आने जाने के बाद भी केस लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा सके. संभव हो सच बोलने का संकल्प उनकी राह आड़े आ रहा हो. क्योंकि वकालत सिर्फ सचबयानी तो है नहीं.

फिर जब दक्षिण अफ्रीका जाने की बात आई तो गांधी वकालत करने की असहजता की वजह से ही दक्षिण अफ्रीका जाना स्वीकार किया था. जाते वक़्त माँ से मिली सीख को गांधी पोटली में बाँध कर ले गए और पूरी कोशिश की उसका पालन हो-चाहे नॉनवेज न खाने की बात हो या अपने पारिवारिक संस्कार के पालन की बात. गांधी अपने आप को बदलने के बजाय परम्परागत राह ढूंढते रहे. अपने गुजराती समाज से जुड़े. लेकिन जब देखा कि वहां बहुत कुछ नियम के विरुद्ध है, अन्यायकारी है तो प्रतिकार किया. जब देखा कि आदमी आदमी में भेद है और भारतीयों के साथ अंग्रेज बड़ा अमानवीय व्यवहार करते हैं, तो उन्हें बुरा लगा. उनका हृदय पीड़ा से भर गया. और प्रतिकार के साथ साथ सेवा की राह को उन्होंने अपनाया. सेवा और प्रतिकार के साथ वह सत्य, निष्ठा और अहिंसा के दम पर डटे रहे. अंग्रेजों ने अपमान भी किया, उनके साथ मार पीट भी की, लेकिन गांधी ने सत्य, अहिंसा, प्रतिकार और सेवा का मार्ग नहीं छोड़ा. और इसी निष्ठा ने गांधी को गांधी बनाया.

गांधी को मजबूती देने का काम नरसी मेहता के भजन ने किया-वैष्णव जन तो तैंने कहिये जो पीर पराई जाणे रे. गांधी को मजबूती देने का काम बचपन में देखा गया नाटक सत्य हरिश्चंद्र ने किया. गांधी को मज़बूत करने का काम उनकी बैरिस्टरी  की पढ़ाई ने किया. गांधी को मज़बूत करने का काम उनकी संवेदनशीलता ने किया.

गांधी की एक और विशेषता उन्हें आगे बढ़ाती है वह थी लक्ष्य तक पहुँचने की ज़िद. और ऐसा करते वक़्त वह अधीर नहीं होते थे, बल्कि वह सतत मनुष्य बने रहते थे. नतीजा होता था, अन्याय करनेवाला स्वयं बेचैन हो उठता था. वह अन्याय करने वालों पर पर गुस्सा करने के बजाय उसे आइना दिखा दिया करते थे. और यही दमन करने वालों को , गलत करने वालों को झंझोर दिया करता था. और गांधी अंततः सफल होते थे.

गांधी की अगर ह्त्या नहीं होती, तो बेशक भारत पाकिस्तान पुनः एक हो जाता है. अंग्रेजों की बंटवारे की नीति कामयाब नहीं होने पाती.  और दुनिया के सामने गांधी अपूर्व उदाहरण पेश करने में कामयाब हो जाते.

गांधी नेता इसलिए थे कि वह अपने गुण अवगुण जानते थे और न सिर्फ जानते थे, अवगुणों पर विजय पाने के लिए सतत प्रयोग रत रहते थे. वह जानते थे मनुष्य में अनेक खामियां हैं, और उन खामियों को जीतकर वह दुनिया के सामने उदाहरण रखना चाहते थे कि मनुष्य अपनी कमजोरियों पर विजय पा सकता है. हिंसा, नफ़रत, आपाधापी सबसे बचा जा सकता है. और दुनिया को सुन्दर बनाया सकता है. लेकिन उनकी हत्या ने उनके काम को पूरा नहीं होने दिया.

गांधी मनुष्य को मनुष्य बनाने की कला जानते थे. मनुष्य को मनुष्य बनाने की कला आती कहाँ से है? रंगचिन्तक  Manjul Bhardwaj कहते हैं मनुष्य को मनुष्य बनाने की कला कला में निहित है. आप गांधी के बचपन को देखिये-गांधी के बालमन पर नाटक सत्य हरिश्चंद्र का बड़ा गहरा असर पडा और उन्होंने व्रत लिया सच बोलने का. और एक सत्य बोलने की आदत ने उन्हें जीवन को समझने की चाभी दे दी.

मंजुल भारद्वाज मानते हैं कोई हर व्यक्ति में नेता होने के गुण हैं, लेकिन ज़रुरत होती है उसे संवारने और निखारने की. स्पष्ट दृष्टि, स्पष्ट लक्ष्य और लक्ष्य तक पहुँचने की सात्विक  ज़िद ही व्यक्ति को नेता बनाती है. गांधी की ज़िद लक्ष्य को सिर्फ़ हासिल करने की ज़िद नहीं थी, बल्कि वह सात्विक मार्ग से लक्ष्य को हासिल करना चाहते थे. ये सात्विक ज़िद ही गांधी को नेता बनाती है. अन्यथा लक्ष्य तक तो राजा भी पहुँच जाता है, कोई बदमाश व्यक्ति भी लक्ष्य को पा लेता है. दूसरी महत्वपूर्ण बात गांधी का लक्ष्य प्राप्त करना कोई चमत्कार नहीं है, बल्कि यह एक वैज्ञानिक प्रयोग है. आप उनके बताये रास्ते पर चलिए लक्ष्य चाहे कितना ही दुर्लभ क्यों न हो प्राप्त होगा ही.

मंजुल कहते हैं, यह बिना सांस्कृतिक चेतना के जागृत हुए हो ही नहीं सकता. गांधी हमारी सांस्कृतिक चेतना के नायक हैं और मैं उन्हें पहला गुरू मानता हूँ. दुनिया में कई तरह की क्रांतियाँ हुई, लेकिन कोई भी क्रान्ति मनुष्य को मनुष्य नहीं बना सकी. सारी क्रांतियाँ सत्ता पर आकर समाप्त हो गयीं और सत्ता फिर उसी व्यवस्था में बदल गयी, जिस व्यवस्था के विरोध में क्रान्ति की गयी. साम्यवादी क्रान्ति का भी वही हाल क्यों हुआ? आज देखिये कि दोनों बड़े साम्यवादी देश अमेरिका से भी बड़े साम्राज्यवादी बने हैं. तो सवाल उठता है, क्रांतियाँ कहाँ और क्यों भटक जाती हैं?

क्रांतियाँ इसलिए राह भटक जाती है क्योंकि उसमें सत्य और निष्ठा नहीं है. उसमें दूसरे को व्यवहार से जीत लेने या कहें अपना बना लेने की कूबत नहीं है. कमज़ोर व्यक्ति की पीड़ा को महसूस करने वाला हृदय नहीं है. सत्ता बन्दूक की गोली से निकल सकती है, लेकिन मनुष्य कला से ही निकलेगा, सांस्कृतिक चेतना ही मनुष्य को मनुष्य बना सकती है. हमने जिस नाट्य सिद्धांत का सूत्रपात किया है, वो थियेटर ऑफ़ रेलेवेंस सांस्कृतिक चेतना का द्वार खोलता है. मेरे लिए थियेटर सिर्फ मनोरंजन के लिए कला का प्रदर्शन नहीं है, बल्कि थियेटर कला के माध्यम से मनुष्य के भीतर सांस्कृतिक दीप जलाने का माध्यम है. इसीलिये मैंने इसे थियेटर ऑफ़ रेलेवेंस कहा. जो कलाकार को विषय से न सिर्फ जोड़ता है, बल्कि उसके भीतर परिवर्तन की गंगा बहाता है.

मंजुल कहते हैं कला तबतक अधूरी है जबतक वह मनुष्य की ज़िंदगी को न बदले और मनुष्य की ज़िंदगियों को बदलने में राजनीति की अहम भूमिका है, इसलिए मेरा मानना है कि कला और राजनीति का गहरा संबंध है. गांधी राजनीतिज्ञ नहीं थे वह एक संवेदनशील व्यक्ति थे, दूसरों की पीड़ा उन्हें परेशान करती थी, और वह उससे मुक्ति की राह निकालने चल पड़ते थे. जब मुक्ति की राह पर निकलते थे तो सत्ता और शोषणकारी शक्तियों से उनका टकराव होता था. गांधी भले मंच पर अभिनय नहीं करते थे, लेकिन जीवन रूपी मंच के वो बड़े अभिनेता थे. जिन्हें देखकर अंग्रेजों का हृदय भी पिघल जाते थे.

तो दुनिया को गांधी जैसे एक नहीं अनेक नेताओं की ज़रुरत है. नेता जो पूरी मानव जाति को मनुष्यता की राह ले चले. और यह सांस्कृतिक क्रान्ति से ही संभव है. जिसकी मशाल लिए थियेटर ऑफ़ रेलेवेंस चल रहा है. हमारे साथी चल रहे हैं. गांधी का सपना सोती आँखों का सपना नहीं था, जागती आँखों का सपना था और यह सच होकर रहेगा. गांधी का मार्ग ही दुनिया की सही राह है.

धनंजय कुमार, मुम्बई

#रंगकर्म#राजनीति #गांधी #थिएटरऑफ़रेलेवंस

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सृजनशील लेखक,प्रयोगशील फिल्म एवम् धारावाहिक निर्माण के पक्षधर, स्टार वर्चस्व वाले भारतीय सिनेमा में लेखकों के मौलिक अधिकारों की बुलंद आवाज़, कोरोना लॉकडाउन में देश की राजनीति को मथने वाले प्रखर राजनैतिक विश्लेषक Dhananjay Kumar ने  विगत 28 वर्षों से थिएटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य सिद्धांत उत्प्रेरित सांस्कृतिक चेतना आन्दोलनको नेतृत्व निर्माण और संवर्धन के अनोखे प्रारूप में आपके सामने रखा है. गांधी को सत्य की डगर पर चलने का पाठ पढ़ाने वाले रंगकर्म की निष्ठा को बड़ी बारीकी और कलात्मक स्वरूप को बिन्दुवार शब्दांकित किया है!

Manjul Bhardwaj’s new Marathi Play ‘Lok-Shastra Savitri ' the Yalgar of Samta !

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