नाटक – “द्वंद्व” घरेलू
हिंसा के कुचक्र में उलझे हुए पति ,पत्नी ,बच्चों ,पड़ोसियों और समाज की
परिस्थितियों से रूबरू होता है नाटक “द्वंद्व” 1000 से ज्यादा बार नुक्कड़ और मंच पर प्रस्तुत !
प्रथम मंचन – 31 जुलाई , 1994
DWANDWA: The play
written & directed by Manjul Bhardwaj
The Indian woman is either venerated, as a goddess or else pitied as a long –suffering victim figure. Despite the undeniable advent of more progressive attitudes towards gender roles in recent times, the oppression of women persists in subtle and not so- subtle ways. This play explores the issue of domestic violence the way in which the woman at home often finds herself in a far vulnerable position than in a hostile external world. This play has been performed more than 1000 times on stage and street.
The Indian woman is either venerated, as a goddess or else pitied as a long –suffering victim figure. Despite the undeniable advent of more progressive attitudes towards gender roles in recent times, the oppression of women persists in subtle and not so- subtle ways. This play explores the issue of domestic violence the way in which the woman at home often finds herself in a far vulnerable position than in a hostile external world. This play has been performed more than 1000 times on stage and street.
जब घरेलु हिंसा केवल निजी और पारिवारिक
दायरे का मुद्दा समझा जाता था ऐसे समय में ‘आधी आबादी’ की न्याय संगत और इंसानी
ह्क्कुक की आवाज़ को आवाज़ दी नाटक “द्वंद्व” ने. भारतीय समाज
के संस्कार,परम्परा और पितृसत्तात्मक नज़रिए की ‘घरेलू हिंसा’ को मौन सहमति को अपनी प्रभावी प्रस्तुतियों से जनता के बीच
जाकर तोड़ा . नाटक की प्रस्तुतियों में , मंचन के बाद जनता से खुला संवाद किया ...
हिंसा से पीड़ित महिलाओं को हौंसला दिया और उन्होंने अपने दर्द को सरेआम बयाँ किया
.. जनता में, बस्तियों में, बिल्डिंगों में,सोसायटियों में, घरों में इस विषय पर
संवाद कायम किया . घर के सदस्यों में संवाद कायम हुआ और परिवार ‘हिंसा’मुक्त हुए !
उम्मीद है आप सब को रंग साधना के यह पड़ाव
नई रंग प्रेरणा दे पाएं
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“थिएटर ऑफ रेलेवेंस” नाट्य सिद्धांत का सूत्रपात सुप्रसिद्ध
रंगचिंतक, "मंजुल भारद्वाज" ने 12 अगस्त 1992 में किया और तब से उसका अभ्यास और क्रियान्वयन वैश्विक स्तर पर कर रहे हैं. “थिएटर ऑफ़ रेलेवंस “रंग सिद्धांत के अनुसार
रंगकर्म ‘निर्देशक और अभिनेता केन्द्रित होने की बजाय “दर्शक और लेखक केन्द्रित हो क्योंकि दर्शक
सबसे बड़ा और शक्तिशाली रंगकर्मी है.
पूंजीवादी कलाकार कभी भी अपनी कलात्मक सामाजिक जिम्मेदारी नहीं लेते इसलिए “कला – कला के लिए” के चक्रव्यहू में फंसे हुए हैं और भोगवादी कला की चक्की में पिस कर ख़त्म हो जाते हैं . “ थिएटर ऑफ़ रेलेवंस “ ने “कला – कला के लिए” वाली औपनिवेशिक और पूंजीवादी सोच के चक्रव्यहू को अपने तत्व और सार्थक प्रयोगों से तोड़ा (भेदा) है और “दर्शक” को जीवन को बेहतर और शोषण मुक्त बनाने वाली प्रतिबद्ध ,प्रगतिशील,समग्र और समर्पित रंग दृष्टि से जोड़ा है .
“ थिएटर ऑफ़ रेलेवंस “ अपने तत्व और सकारात्मक प्रयोगों से एक बेहतर , सुंदर और मानवीय विश्व के निर्माण के लिए सांस्कृतिक चेतना का निर्माण कर सांस्कृतिक क्रांति के लिए प्रतिबद्ध है !
पूंजीवादी कलाकार कभी भी अपनी कलात्मक सामाजिक जिम्मेदारी नहीं लेते इसलिए “कला – कला के लिए” के चक्रव्यहू में फंसे हुए हैं और भोगवादी कला की चक्की में पिस कर ख़त्म हो जाते हैं . “ थिएटर ऑफ़ रेलेवंस “ ने “कला – कला के लिए” वाली औपनिवेशिक और पूंजीवादी सोच के चक्रव्यहू को अपने तत्व और सार्थक प्रयोगों से तोड़ा (भेदा) है और “दर्शक” को जीवन को बेहतर और शोषण मुक्त बनाने वाली प्रतिबद्ध ,प्रगतिशील,समग्र और समर्पित रंग दृष्टि से जोड़ा है .
“ थिएटर ऑफ़ रेलेवंस “ अपने तत्व और सकारात्मक प्रयोगों से एक बेहतर , सुंदर और मानवीय विश्व के निर्माण के लिए सांस्कृतिक चेतना का निर्माण कर सांस्कृतिक क्रांति के लिए प्रतिबद्ध है !
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