अमूर्त के मूर्त होने का कला बोध ही सौन्दर्य है! – मंजुल भारद्वाज
Friday, October 16, 2020
अमूर्त के मूर्त होने का कला बोध ही सौन्दर्य है! – मंजुल भारद्वाज
Friday, October 9, 2020
रंगचिंतक मंजुल भारद्वाज का नाटक राजगति ‘राजनीति गंदी है’ के कलंक को धोता है !
नाटक राजगति ‘राजनीति गंदी है’ के कलंक को धोता है और देशवासियों को राजनीति में विवेक सम्मत सहभगिता के लिए प्रेरित करता है!
Tuesday, October 6, 2020
मैं कौन हूँ! – मंजुल भारद्वाज
मैं कौन हूँ! – मंजुल भारद्वाज
Thursday, October 1, 2020
थिएटर ऑफ़ रेलेवंस :2 अक्तूबर गांधी जयंती पर : रंगकर्म,राजनीति और गांधी पर प्रखर राजनैतिक विश्लेषक धनंजय कुमार का लेख
2 अक्तूबर गांधी जयंती पर : रंगकर्म,राजनीति और गांधी पर प्रखर राजनैतिक विश्लेषक धनंजय कुमार का लेख
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थिएटर ऑफ़ रेलेवंस.....
नेता ऐसे बनते हैं !
नेता आसमान से नहीं गिरते, न ही किसी फैक्ट्री में पैदा होते हैं. नेता ज़मीन में उगते
हैं. संस्कारों,
संवेदनाओं, वर्जनाओं और
मर्यादाओं के बीच पलते हैं. शोषण-अन्याय को देखकर उद्वेलित होते हैं. खुद को
मानवीय-सामजिक प्रयोगशाला में तपाते हैं, तब जाकर औरों के
लिए यथासंभव सुगम राह ढूंढ पाते हैं. जबतक कमज़ोर व्यक्ति का दुःख आपको दुखी नहीं
करता, बेचैन नहीं करता आप नेता नहीं हैं.
गांधी की ही नेता होने की
यात्रा देखिये, तो बहुत कुछ स्पष्ट होता है. गांधी बालपन में आम बच्चों
जैसे ही थे, झूठ भी बोलते थे और जहाँ असहज महसूस करते थे, वहां से बचने की राह ढूंढते थे. इसी क्रम में मुम्बई कोर्ट
में महीनों आने जाने के बाद भी केस लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा सके. संभव हो सच
बोलने का संकल्प उनकी राह आड़े आ रहा हो. क्योंकि वकालत सिर्फ सचबयानी तो है नहीं.
फिर जब दक्षिण अफ्रीका
जाने की बात आई तो गांधी वकालत करने की असहजता की वजह से ही दक्षिण अफ्रीका जाना
स्वीकार किया था. जाते वक़्त माँ से मिली सीख को गांधी पोटली में बाँध कर ले गए और
पूरी कोशिश की उसका पालन हो-चाहे नॉनवेज न खाने की बात हो या अपने पारिवारिक
संस्कार के पालन की बात. गांधी अपने आप को बदलने के बजाय परम्परागत राह ढूंढते
रहे. अपने गुजराती समाज से जुड़े. लेकिन जब देखा कि वहां बहुत कुछ नियम के विरुद्ध
है, अन्यायकारी है तो प्रतिकार किया. जब देखा कि आदमी आदमी में
भेद है और भारतीयों के साथ अंग्रेज बड़ा अमानवीय व्यवहार करते हैं, तो उन्हें बुरा लगा. उनका हृदय पीड़ा से भर गया. और प्रतिकार
के साथ साथ सेवा की राह को उन्होंने अपनाया. सेवा और प्रतिकार के साथ वह सत्य, निष्ठा और अहिंसा के दम पर डटे रहे. अंग्रेजों ने अपमान भी
किया, उनके साथ मार पीट भी की, लेकिन गांधी ने
सत्य, अहिंसा, प्रतिकार और सेवा का
मार्ग नहीं छोड़ा. और इसी निष्ठा ने गांधी को गांधी बनाया.
गांधी को मजबूती देने का
काम नरसी मेहता के भजन ने किया-वैष्णव जन तो तैंने कहिये जो पीर पराई जाणे रे.
गांधी को मजबूती देने का काम बचपन में देखा गया नाटक सत्य हरिश्चंद्र ने किया.
गांधी को मज़बूत करने का काम उनकी बैरिस्टरी
की पढ़ाई ने किया. गांधी को मज़बूत करने का काम उनकी संवेदनशीलता ने किया.
गांधी की एक और विशेषता
उन्हें आगे बढ़ाती है वह थी लक्ष्य तक पहुँचने की ज़िद. और ऐसा करते वक़्त वह अधीर
नहीं होते थे, बल्कि वह सतत मनुष्य बने रहते थे. नतीजा होता था, अन्याय करनेवाला स्वयं बेचैन हो उठता था. वह अन्याय करने
वालों पर पर गुस्सा करने के बजाय उसे आइना दिखा दिया करते थे. और यही दमन करने
वालों को , गलत करने वालों को झंझोर दिया करता था. और गांधी अंततः सफल
होते थे.
गांधी की अगर ह्त्या नहीं
होती, तो बेशक भारत पाकिस्तान पुनः एक हो जाता है. अंग्रेजों की
बंटवारे की नीति कामयाब नहीं होने पाती.
और दुनिया के सामने गांधी अपूर्व उदाहरण पेश करने में कामयाब हो जाते.
गांधी नेता इसलिए थे कि
वह अपने गुण अवगुण जानते थे और न सिर्फ जानते थे, अवगुणों पर विजय
पाने के लिए सतत प्रयोग रत रहते थे. वह जानते थे मनुष्य में अनेक खामियां हैं, और उन खामियों को जीतकर वह दुनिया के सामने उदाहरण रखना
चाहते थे कि मनुष्य अपनी कमजोरियों पर विजय पा सकता है. हिंसा, नफ़रत, आपाधापी सबसे बचा जा सकता
है. और दुनिया को सुन्दर बनाया सकता है. लेकिन उनकी हत्या ने उनके काम को पूरा
नहीं होने दिया.
गांधी मनुष्य को मनुष्य
बनाने की कला जानते थे. मनुष्य को मनुष्य बनाने की कला आती कहाँ से है? रंगचिन्तक Manjul Bhardwaj कहते हैं मनुष्य को मनुष्य बनाने की कला कला में निहित है.
आप गांधी के बचपन को देखिये-गांधी के बालमन पर नाटक सत्य हरिश्चंद्र का बड़ा गहरा
असर पडा और उन्होंने व्रत लिया सच बोलने का. और एक सत्य बोलने की आदत ने उन्हें
जीवन को समझने की चाभी दे दी.
मंजुल भारद्वाज मानते हैं
कोई हर व्यक्ति में नेता होने के गुण हैं, लेकिन ज़रुरत होती
है उसे संवारने और निखारने की. स्पष्ट दृष्टि, स्पष्ट लक्ष्य और
लक्ष्य तक पहुँचने की सात्विक ज़िद ही
व्यक्ति को नेता बनाती है. गांधी की ज़िद लक्ष्य को सिर्फ़ हासिल करने की ज़िद नहीं
थी, बल्कि वह सात्विक मार्ग से लक्ष्य को हासिल करना चाहते थे.
ये सात्विक ज़िद ही गांधी को नेता बनाती है. अन्यथा लक्ष्य तक तो राजा भी पहुँच जाता
है, कोई बदमाश व्यक्ति भी लक्ष्य को पा लेता है. दूसरी
महत्वपूर्ण बात गांधी का लक्ष्य प्राप्त करना कोई चमत्कार नहीं है, बल्कि यह एक वैज्ञानिक प्रयोग है. आप उनके बताये रास्ते पर
चलिए लक्ष्य चाहे कितना ही दुर्लभ क्यों न हो प्राप्त होगा ही.
मंजुल कहते हैं, यह बिना सांस्कृतिक चेतना के जागृत हुए हो ही नहीं सकता.
गांधी हमारी सांस्कृतिक चेतना के नायक हैं और मैं उन्हें पहला गुरू मानता हूँ.
दुनिया में कई तरह की क्रांतियाँ हुई, लेकिन कोई भी क्रान्ति
मनुष्य को मनुष्य नहीं बना सकी. सारी क्रांतियाँ सत्ता पर आकर समाप्त हो गयीं और
सत्ता फिर उसी व्यवस्था में बदल गयी, जिस व्यवस्था के विरोध
में क्रान्ति की गयी. साम्यवादी क्रान्ति का भी वही हाल क्यों हुआ? आज देखिये कि दोनों बड़े साम्यवादी देश अमेरिका से भी बड़े
साम्राज्यवादी बने हैं. तो सवाल उठता है, क्रांतियाँ कहाँ
और क्यों भटक जाती हैं?
क्रांतियाँ इसलिए राह भटक
जाती है क्योंकि उसमें सत्य और निष्ठा नहीं है. उसमें दूसरे को व्यवहार से जीत
लेने या कहें अपना बना लेने की कूबत नहीं है. कमज़ोर व्यक्ति की पीड़ा को महसूस करने
वाला हृदय नहीं है. सत्ता बन्दूक की गोली से निकल सकती है, लेकिन मनुष्य कला से ही निकलेगा, सांस्कृतिक चेतना ही मनुष्य को मनुष्य बना सकती है. हमने
जिस नाट्य सिद्धांत का सूत्रपात किया है, वो थियेटर ऑफ़
रेलेवेंस सांस्कृतिक चेतना का द्वार खोलता है. मेरे लिए थियेटर सिर्फ मनोरंजन के
लिए कला का प्रदर्शन नहीं है, बल्कि थियेटर कला के
माध्यम से मनुष्य के भीतर सांस्कृतिक दीप जलाने का माध्यम है. इसीलिये मैंने इसे
थियेटर ऑफ़ रेलेवेंस कहा. जो कलाकार को विषय से न सिर्फ जोड़ता है, बल्कि उसके भीतर परिवर्तन की गंगा बहाता है.
मंजुल कहते हैं कला तबतक
अधूरी है जबतक वह मनुष्य की ज़िंदगी को न बदले और मनुष्य की ज़िंदगियों को बदलने में
राजनीति की अहम भूमिका है, इसलिए मेरा मानना है कि
कला और राजनीति का गहरा संबंध है. गांधी राजनीतिज्ञ नहीं थे वह एक संवेदनशील
व्यक्ति थे, दूसरों की पीड़ा उन्हें परेशान करती थी, और वह उससे मुक्ति की राह निकालने चल पड़ते थे. जब मुक्ति की
राह पर निकलते थे तो सत्ता और शोषणकारी शक्तियों से उनका टकराव होता था. गांधी भले
मंच पर अभिनय नहीं करते थे, लेकिन जीवन रूपी मंच के
वो बड़े अभिनेता थे. जिन्हें देखकर अंग्रेजों का हृदय भी पिघल जाते थे.
तो दुनिया को गांधी जैसे
एक नहीं अनेक नेताओं की ज़रुरत है. नेता जो पूरी मानव जाति को मनुष्यता की राह ले
चले. और यह सांस्कृतिक क्रान्ति से ही संभव है. जिसकी मशाल लिए थियेटर ऑफ़ रेलेवेंस
चल रहा है. हमारे साथी चल रहे हैं. गांधी का सपना सोती आँखों का सपना नहीं था, जागती आँखों का सपना था और यह सच होकर रहेगा. गांधी का
मार्ग ही दुनिया की सही राह है.
धनंजय कुमार, मुम्बई
#रंगकर्म#राजनीति #गांधी
#थिएटरऑफ़रेलेवंस
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