Sunday, October 7, 2018

थियेटर को गुलाम बनाने की साज़िश है ओलम्पिक्स: मंजुल भारद्वाज

https://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/nbteditpage/olympics-is-an-conspiracy-to-make-theatre-gulam/

थियेटर को गुलाम बनाने की साज़िश है ओलम्पिक्स: मंजुल भारद्वाज 

दशकों से रंगकर्म की सामाजिक-राजनीतिक वैचारिकी और भूमिका पर शोध करने वाले और रंगमंच का एक जन-मॉडल और उसकी सैद्धांतिकी लेकर देश भर में घूम-घूम कर युवाओं में बदलाव की ऊर्जा और प्रेरणा का प्रसार करते आ रहे मंजुल भारद्वाज यूरोप में भी एक अलग पहचान कायम कर चुके हैं। मंजुल के पास समाज और रंगकर्म के आमूलचूल बदलाव की अनूठी कार्ययोजनाएं हैं, जिनकी झलक उनकी समय-समय पर सामने आती गतिविधियों और चर्चाओं में मिल जाती है। उनसे समकालीन रंगमंच के संपादक और वरिष्ठ रंग-समीक्षक राजेश चन्द्र की बातचीतः



मंजुल जी, थियेटर को ऐतिहासिक रूप से प्रतिरोध का माध्यम माना जाता है, लेकिन इन दिनों यह बताने की कोशिश हो रही है कि सत्ता के साथ गठजोड़ से ही थियेटर की पहचान बनेगी और उसका विकास होगा। इसलिये करोड़ों रुपये खर्च कर ओलम्पिक्स जैसे आयोजन हो रहे हैं। आप इस दृष्टि से सहमत हैं?

मंजुल- देखिये वह व्यवस्था गुलाम होती है जिसमें कलाकार निरीह, असहाय और बेबस हो। अनुभव से हम जानते हैं कि कला हर प्रकार की जड़ता और यथास्थिति के खिलाफ एक विद्रोह है और रंगमंच इस विद्रोह का सबसे सशक्त माध्यम रहा है। आज सत्ता-संस्थानों द्वारा रंगमंच को उसकी सामाजिक-राजनीतिक भूमिका से काट कर रूप और शिल्प के खांचे में सीमित करने का प्रयास चल रहा है, जिसमें दुर्भाग्यवश कुछ कथित प्रगतिशील और प्रतिबद्ध लोग भी शामिल हैं। नुक्कड़ नाटक जो सामाजिक बदलाव के एक क्रान्तिकारी माध्यम के तौर पर समाज में अपनी मजबूत जगह बना चुका था, उसे पहले तो इन्होंने गटर थियेटर या राजनीतिक नारेबाज़ी कह कर ख़ारिज़ करने की कोशिश की, पर जब उसमें सफलता नहीं मिली तो उसे गोद ले लिया। करोड़ों रुपये फेंक कर उसे सरकारी भोंपू या माल बेचने का तरीका बना दिया। सत्तर-अस्सी के दशक में जिस रंग आन्दोलन का एक राष्ट्रव्यापी स्वरूप निर्मित हो रहा था, उससे सत्ता को घबराहट हुई और उसने रंगमंच की वैचारिक धार को खत्म कर उसे पालतू और गुलाम बनाने की योजना पर काम शुरू किया और इस काम को अंजाम देने की जिम्मेदारी एनएसडी तथा संगीत नाटक अकादमी जैसी संस्थाओं को सौंप दी। इन संस्थानों ने रंगमंच की बुनियादी संरचना का निर्माण करने की तरफ कभी ध्यान नहीं दिया और तरह-तरह के अनुदानों एवं बड़े महानगरों में सैकड़ों करोड़ के महोत्सवों के आयोजनों के माध्यम से एक खास तरह के कलावादी और समाज-विरोधी रंगमंच को बढ़ावा दिया, जिसमें जनता के वास्तविक संघर्ष और सवाल नदारद थे। यह एक तरह से जनता के प्रति, कला की सामाजिक भूमिका के प्रति एक गद्दारी ही है कि आप रंगकर्म को बाजार का उत्पाद और नुमाइश की चीज बना दें। ओलम्पिक और भारंगम जैसे आयोजन सत्ता और पूंजीवादी बाजार के गठजोड़ से रंगमंच को एक जनविरोधी और सजावटी कला बना कर उसे नष्ट करने की ही एक कवायद हैं जिसमें उन्हें काफी कामयाबी मिली है। आज रंगमंच का एक बड़ा हिस्सा समाज से कट गया है और उसमें मनुष्य की जगह हाशिये पर है। रंगकर्मी समय-समाज के मुद्दों पर मौन साधे रखते हैं और सत्ता के दरबार में वफादारी का पहला स्थान पाने के लिये होड़ कर रहे हैं। यह स्थिति सच्चे रंगकर्मियों को बहुत पीड़ा देती है और वे हताशा का शिकार हो रहे हैं।

इन सबके बीच आप जैसे रंगकर्मी भी हैं, जो इससे प्रभावित होने की बजाय उसे चुनौती दे रहे हैं। क्या विकल्प है इनका?

मंजुल- हम पिछले पच्चीस वर्षों से निरंतर थियेटर ऑफ रेलेवंसरंग-सिद्धांत के माध्यम से पूंजीवाद के शोषण-दमन और कला के लिए कलाकी उसकी साजिश को उजागऱ करते आ रहे हैं नए रंग तत्व दुनिया के सामने रख रहे हैं। दिल्ली में विकल्प-साझा मंच रंगमंच के बाजारीकरण-उत्सवीकरण और उसे एक समाज-विरोधी कला बनाने की साजिशों के खिलाफ एक सार्थक प्रतिवाद कर रहा है। इससे सार्थक रंगकर्म करने वाले लोगों के बीच एक उत्साह आया है और वे गोलबंद होने लगे हैं। आप देखिये कि मंडी हाउस पर एनएसडी के ब्राह्मणवादी-पूंजीवादी किले के भीतर सौ-दो सौ कथित विशिष्ट रंगकर्मियों के लिये करोड़ों रुपये खर्च कर ओलम्पिक का पाखण्ड रचा जा रहा है, और दूसरी तरफ देश भर के लाखों रंगकर्मी अभाव और संसाधनहीनता के बीच रंगकर्म करते हुए केवल अपने जुनून के सहारे जी रहे हैं। ओलम्पिक इस जुनून, समर्पण और प्रतिबद्धता का अपमान है। सत्ता यह प्रचारित कर रही है कि ओलम्पिक से थियेटर का विकास होगा, दुनिया में भारतीय रंगमंच की पहचान बनेगी। यह सरासर झूठ है। यह सिर्फ मुट्ठी भर व्यवसायियों और नुमाइशी रंगकर्मियों को फायदा पहुंचाने की कवायद है जो थियेटर को केवल क्षति पहुंचा सकती है। इस ओलम्पिक में कहां हैं हमारी लोक नाट्य शैलियां और लोक कलाकार? कहां हैं हमारे नाटककार, हमारे अभिनेता? इसमें हमारे सक्रिय नाट्य दलों और रंगकर्मियों की भागीदारी कहां है? नाटकों को दर्शक क्यों नहीं मिल पा रहे? तब फिर करोड़ों रुपये क्यों बरबाद किये जा रहे हैं ? ऐसी गतिविधियों से थियेटर की पहचान नहीं उभरती। वह जनता के संघर्षों में भागीदारी से और वैचारिकता से बनती है।

ऐसे में प्रतिरोध की क्या रणनीति होगी?

मंजुल- आज देश के रंगकर्मियों को मालूम हो गया है कि ओलम्पिक जैसे तमाशों से केवल दस-बीस लोग करोड़पति हो जायेंगे और रंगकर्म के विकास से इसका कोई नाता नहीं है। हम थियेटर के अपने संस्थानों और संसाधनों को और लुटने नहीं दे सकते। उन तक देश के सभी रंगकर्मियों की समान पहुंच बनाने और थियेटर की बुनियादी संरचना के विकास की मांग को लेकर आने वाले दिनों में संघर्ष और तेज़ होगे, जिसके लिये कई स्तरों पर प्रयास जारी हैं। थियेटर को सामाजिक जीवन का हिस्सा बनाने के लिये यह ज़रूरी है।

(27 मार्च,2018 
के नवभारत टाइम्स में राजेश चंद्र द्वारा लिया गया मंजुल भारद्वाज का साक्षात्कार)

https://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/nbteditpage/olympics-is-an-conspiracy-to-make-theatre-gulam/

No comments:

Post a Comment

Manjul Bhardwaj’s new Marathi Play ‘Lok-Shastra Savitri ' the Yalgar of Samta !

  Manjul Bhardwaj’s new Marathi Play ‘Lok-Shastra Savitri ' the Yalgar of Samta ! - Kusum Tripathi When I received a call from my old fr...