“संवैधानिक व्यवस्था के निर्माण के लिए राजनीतिक परिदृश्य को बदलने की चेतना दर्शकों में जगाता है मंजुल भारद्वाज का नाटक “राजगति” ” – कुसुम त्रिपाठी (प्रखर नारीवादी और सांस्कृतिक आंदोलनों की अध्येता”
.....नाटक देश के आम आदमी से शुरू होता है। किसान.छात्र..मजदूर..महिलाएँ सभी वर्ग के लोग राजनीति को गन्दा कहते है और सभी उससे दूर रहने की बात करते है ।आम आदमी लोकतंत्र को समझ नहीं पाती .उसे नही पता उसके एक वोट से देश की सरकार बनती है।
मंजुल ने नाटक में स्वन्तत्रता के पहले औऱ स्वतंत्रता के बाद के इतिहास को बखूबी दर्शाया है।. मंजुल ने तीन धाराओं को...भगत सिंह...गाँधीजी..आम्बेडकर के आन्दोलनो को दिखाया है। देश स्वतंत्र होता है। अहिंसा..शान्ति..न्याय...समता के आधार पर तथा संवैधानिक व्यवस्था के आधार पर आगे बढ रहा है।
...फिर 90'' के दशक में देश में मण्डल..कमण्डल..भूमण्डल की राजनीति चलाई जाती है। असल में देश में रोजगार है ही नहीं औऱ सवर्ण युवक समझते है आरक्षण के कारण हम बेरोजगार हैं। ़इस बात को लेकर दोनों समुदाय में दंगा हो जाता है । इसी बीच भूमण्डलीकरण के कारण रोजगार छीने जा रहे है ।कारखाने बन्द हो रहे है ।किसान विरोधी नीतियाँ बनाई जा रही है ।इन सब के बीच दलित राजनीति में बिखराव.. कम्युनिस्ट पार्टियों की असफलता.. जनता का मोहभंग ..
भूमण्डलीकरण के कारण मुनाफे पर आधारित अर्थ व्यवस्था ने उपभोक्तावादी संस्कृति को जन्म दिया। परिणाम स्वरूप...मजदूर..किसानों का शोषण...औरतों पर अत्याचार बढना बलात्कार बढ़ना ..एक तरफ औरतों को विश्व सुन्दरी बनना तो दूसरी ओर बेटी बचाव बेटी पढ़ाओ तथाकथित नारा... किसानों की आत्महत्या...सरकार का तानाशाही रवैया..लूट..खसौट पर आधारित अर्थतन्त्र...लोकतंत्र का गला घोटा जा रहा है
इन सब के बीच आम जनता को लोकतांत्रिक अधिकारों के सही इस्तेमाल की बात कही गई है। नाटक राजनीति गंदी नहीं है के भ्रम को तोड़कर राजनीति में जन सहभागिता की अपील करता है.
सभी कलाकारों अश्विनी नांदेडकर, योगिनी चौक, सायली पावसकर, कोमल खामकर, तुषार म्हस्के,स्वाति वाघ,हृषिकेश पाटिल,प्रियंका काम्बले,प्रसाद खामकर और सचिन गाडेकर ने बखूबी अपनी भूमिका निभाई है!
“थिएटर ऑफ़ रेलेवंस” नाट्य दर्शन विगत 26 वर्षों से फासीवादी ताकतों से जूझ रहा है । भूमंडलीकरण और फासीवादी ताकतें ‘स्वराज और समता’ के विचार को ध्वस्त कर समाज में विकार पैदा करती हैं जिससे पूरा समाज ‘आत्महीनता’ से ग्रसित होकर हिंसा से लैस हो जाता है. हिंसा मानवता को नष्ट करती है और मनुष्य में ‘इंसानियत’ का भाव जगाती है कला. कला जो मनुष्य को मनुष्यता का बोध कराए...कला जो मनुष्य को इंसान बनाए! “थिएटर ऑफ़ रेलेवंस”... एक चौथाई सदी यानी 26 वर्षों से सतत सरकारी, गैर सरकारी, कॉर्पोरेटफंडिंग या किसी भी देशी विदेशी अनुदान से परे. सरकार के 300 से 1000 करोड़ के अनुमानित संस्कृति संवर्धन बजट के बरक्स ‘दर्शक’ सहभागिता पर खड़ा है हमारा रंग आन्दोलन.. मुंबई से मणिपुर तक!
रंग चिन्तक मंजुल
भारद्वाज रंग दर्शन थिएटर ऑफ रेलेवेंस' के सर्जक व प्रयोगकर्त्ता हैं, जो राष्ट्रीय चुनौतियों को न सिर्फ स्वीकार
करते हैं, बल्कि अपने नाट्य
सिद्धांत "थिएटर आफ रेलेवेंस" के माध्यम से वह राष्ट्रीय एजेंडा भी तय
करते हैं।
वर्तमान के
पूंजीवादी फ़ासीवाद दौर में राजनैतिक
परिदृश्य’ को बदलने के लिए नाटक राजगति एक अनोखी कलात्मक पहल है. मंजुल
भारद्वाज को दिल से बधाई!
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