अमूर्त के मूर्त होने का कला बोध ही सौन्दर्य है! – मंजुल भारद्वाज
Friday, October 16, 2020
अमूर्त के मूर्त होने का कला बोध ही सौन्दर्य है! – मंजुल भारद्वाज
Friday, October 9, 2020
रंगचिंतक मंजुल भारद्वाज का नाटक राजगति ‘राजनीति गंदी है’ के कलंक को धोता है !
नाटक राजगति ‘राजनीति गंदी है’ के कलंक को धोता है और देशवासियों को राजनीति में विवेक सम्मत सहभगिता के लिए प्रेरित करता है!
Tuesday, October 6, 2020
मैं कौन हूँ! – मंजुल भारद्वाज
मैं कौन हूँ! – मंजुल भारद्वाज
Thursday, October 1, 2020
थिएटर ऑफ़ रेलेवंस :2 अक्तूबर गांधी जयंती पर : रंगकर्म,राजनीति और गांधी पर प्रखर राजनैतिक विश्लेषक धनंजय कुमार का लेख
2 अक्तूबर गांधी जयंती पर : रंगकर्म,राजनीति और गांधी पर प्रखर राजनैतिक विश्लेषक धनंजय कुमार का लेख
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थिएटर ऑफ़ रेलेवंस.....
नेता ऐसे बनते हैं !
नेता आसमान से नहीं गिरते, न ही किसी फैक्ट्री में पैदा होते हैं. नेता ज़मीन में उगते
हैं. संस्कारों,
संवेदनाओं, वर्जनाओं और
मर्यादाओं के बीच पलते हैं. शोषण-अन्याय को देखकर उद्वेलित होते हैं. खुद को
मानवीय-सामजिक प्रयोगशाला में तपाते हैं, तब जाकर औरों के
लिए यथासंभव सुगम राह ढूंढ पाते हैं. जबतक कमज़ोर व्यक्ति का दुःख आपको दुखी नहीं
करता, बेचैन नहीं करता आप नेता नहीं हैं.
गांधी की ही नेता होने की
यात्रा देखिये, तो बहुत कुछ स्पष्ट होता है. गांधी बालपन में आम बच्चों
जैसे ही थे, झूठ भी बोलते थे और जहाँ असहज महसूस करते थे, वहां से बचने की राह ढूंढते थे. इसी क्रम में मुम्बई कोर्ट
में महीनों आने जाने के बाद भी केस लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा सके. संभव हो सच
बोलने का संकल्प उनकी राह आड़े आ रहा हो. क्योंकि वकालत सिर्फ सचबयानी तो है नहीं.
फिर जब दक्षिण अफ्रीका
जाने की बात आई तो गांधी वकालत करने की असहजता की वजह से ही दक्षिण अफ्रीका जाना
स्वीकार किया था. जाते वक़्त माँ से मिली सीख को गांधी पोटली में बाँध कर ले गए और
पूरी कोशिश की उसका पालन हो-चाहे नॉनवेज न खाने की बात हो या अपने पारिवारिक
संस्कार के पालन की बात. गांधी अपने आप को बदलने के बजाय परम्परागत राह ढूंढते
रहे. अपने गुजराती समाज से जुड़े. लेकिन जब देखा कि वहां बहुत कुछ नियम के विरुद्ध
है, अन्यायकारी है तो प्रतिकार किया. जब देखा कि आदमी आदमी में
भेद है और भारतीयों के साथ अंग्रेज बड़ा अमानवीय व्यवहार करते हैं, तो उन्हें बुरा लगा. उनका हृदय पीड़ा से भर गया. और प्रतिकार
के साथ साथ सेवा की राह को उन्होंने अपनाया. सेवा और प्रतिकार के साथ वह सत्य, निष्ठा और अहिंसा के दम पर डटे रहे. अंग्रेजों ने अपमान भी
किया, उनके साथ मार पीट भी की, लेकिन गांधी ने
सत्य, अहिंसा, प्रतिकार और सेवा का
मार्ग नहीं छोड़ा. और इसी निष्ठा ने गांधी को गांधी बनाया.
गांधी को मजबूती देने का
काम नरसी मेहता के भजन ने किया-वैष्णव जन तो तैंने कहिये जो पीर पराई जाणे रे.
गांधी को मजबूती देने का काम बचपन में देखा गया नाटक सत्य हरिश्चंद्र ने किया.
गांधी को मज़बूत करने का काम उनकी बैरिस्टरी
की पढ़ाई ने किया. गांधी को मज़बूत करने का काम उनकी संवेदनशीलता ने किया.
गांधी की एक और विशेषता
उन्हें आगे बढ़ाती है वह थी लक्ष्य तक पहुँचने की ज़िद. और ऐसा करते वक़्त वह अधीर
नहीं होते थे, बल्कि वह सतत मनुष्य बने रहते थे. नतीजा होता था, अन्याय करनेवाला स्वयं बेचैन हो उठता था. वह अन्याय करने
वालों पर पर गुस्सा करने के बजाय उसे आइना दिखा दिया करते थे. और यही दमन करने
वालों को , गलत करने वालों को झंझोर दिया करता था. और गांधी अंततः सफल
होते थे.
गांधी की अगर ह्त्या नहीं
होती, तो बेशक भारत पाकिस्तान पुनः एक हो जाता है. अंग्रेजों की
बंटवारे की नीति कामयाब नहीं होने पाती.
और दुनिया के सामने गांधी अपूर्व उदाहरण पेश करने में कामयाब हो जाते.
गांधी नेता इसलिए थे कि
वह अपने गुण अवगुण जानते थे और न सिर्फ जानते थे, अवगुणों पर विजय
पाने के लिए सतत प्रयोग रत रहते थे. वह जानते थे मनुष्य में अनेक खामियां हैं, और उन खामियों को जीतकर वह दुनिया के सामने उदाहरण रखना
चाहते थे कि मनुष्य अपनी कमजोरियों पर विजय पा सकता है. हिंसा, नफ़रत, आपाधापी सबसे बचा जा सकता
है. और दुनिया को सुन्दर बनाया सकता है. लेकिन उनकी हत्या ने उनके काम को पूरा
नहीं होने दिया.
गांधी मनुष्य को मनुष्य
बनाने की कला जानते थे. मनुष्य को मनुष्य बनाने की कला आती कहाँ से है? रंगचिन्तक Manjul Bhardwaj कहते हैं मनुष्य को मनुष्य बनाने की कला कला में निहित है.
आप गांधी के बचपन को देखिये-गांधी के बालमन पर नाटक सत्य हरिश्चंद्र का बड़ा गहरा
असर पडा और उन्होंने व्रत लिया सच बोलने का. और एक सत्य बोलने की आदत ने उन्हें
जीवन को समझने की चाभी दे दी.
मंजुल भारद्वाज मानते हैं
कोई हर व्यक्ति में नेता होने के गुण हैं, लेकिन ज़रुरत होती
है उसे संवारने और निखारने की. स्पष्ट दृष्टि, स्पष्ट लक्ष्य और
लक्ष्य तक पहुँचने की सात्विक ज़िद ही
व्यक्ति को नेता बनाती है. गांधी की ज़िद लक्ष्य को सिर्फ़ हासिल करने की ज़िद नहीं
थी, बल्कि वह सात्विक मार्ग से लक्ष्य को हासिल करना चाहते थे.
ये सात्विक ज़िद ही गांधी को नेता बनाती है. अन्यथा लक्ष्य तक तो राजा भी पहुँच जाता
है, कोई बदमाश व्यक्ति भी लक्ष्य को पा लेता है. दूसरी
महत्वपूर्ण बात गांधी का लक्ष्य प्राप्त करना कोई चमत्कार नहीं है, बल्कि यह एक वैज्ञानिक प्रयोग है. आप उनके बताये रास्ते पर
चलिए लक्ष्य चाहे कितना ही दुर्लभ क्यों न हो प्राप्त होगा ही.
मंजुल कहते हैं, यह बिना सांस्कृतिक चेतना के जागृत हुए हो ही नहीं सकता.
गांधी हमारी सांस्कृतिक चेतना के नायक हैं और मैं उन्हें पहला गुरू मानता हूँ.
दुनिया में कई तरह की क्रांतियाँ हुई, लेकिन कोई भी क्रान्ति
मनुष्य को मनुष्य नहीं बना सकी. सारी क्रांतियाँ सत्ता पर आकर समाप्त हो गयीं और
सत्ता फिर उसी व्यवस्था में बदल गयी, जिस व्यवस्था के विरोध
में क्रान्ति की गयी. साम्यवादी क्रान्ति का भी वही हाल क्यों हुआ? आज देखिये कि दोनों बड़े साम्यवादी देश अमेरिका से भी बड़े
साम्राज्यवादी बने हैं. तो सवाल उठता है, क्रांतियाँ कहाँ
और क्यों भटक जाती हैं?
क्रांतियाँ इसलिए राह भटक
जाती है क्योंकि उसमें सत्य और निष्ठा नहीं है. उसमें दूसरे को व्यवहार से जीत
लेने या कहें अपना बना लेने की कूबत नहीं है. कमज़ोर व्यक्ति की पीड़ा को महसूस करने
वाला हृदय नहीं है. सत्ता बन्दूक की गोली से निकल सकती है, लेकिन मनुष्य कला से ही निकलेगा, सांस्कृतिक चेतना ही मनुष्य को मनुष्य बना सकती है. हमने
जिस नाट्य सिद्धांत का सूत्रपात किया है, वो थियेटर ऑफ़
रेलेवेंस सांस्कृतिक चेतना का द्वार खोलता है. मेरे लिए थियेटर सिर्फ मनोरंजन के
लिए कला का प्रदर्शन नहीं है, बल्कि थियेटर कला के
माध्यम से मनुष्य के भीतर सांस्कृतिक दीप जलाने का माध्यम है. इसीलिये मैंने इसे
थियेटर ऑफ़ रेलेवेंस कहा. जो कलाकार को विषय से न सिर्फ जोड़ता है, बल्कि उसके भीतर परिवर्तन की गंगा बहाता है.
मंजुल कहते हैं कला तबतक
अधूरी है जबतक वह मनुष्य की ज़िंदगी को न बदले और मनुष्य की ज़िंदगियों को बदलने में
राजनीति की अहम भूमिका है, इसलिए मेरा मानना है कि
कला और राजनीति का गहरा संबंध है. गांधी राजनीतिज्ञ नहीं थे वह एक संवेदनशील
व्यक्ति थे, दूसरों की पीड़ा उन्हें परेशान करती थी, और वह उससे मुक्ति की राह निकालने चल पड़ते थे. जब मुक्ति की
राह पर निकलते थे तो सत्ता और शोषणकारी शक्तियों से उनका टकराव होता था. गांधी भले
मंच पर अभिनय नहीं करते थे, लेकिन जीवन रूपी मंच के
वो बड़े अभिनेता थे. जिन्हें देखकर अंग्रेजों का हृदय भी पिघल जाते थे.
तो दुनिया को गांधी जैसे
एक नहीं अनेक नेताओं की ज़रुरत है. नेता जो पूरी मानव जाति को मनुष्यता की राह ले
चले. और यह सांस्कृतिक क्रान्ति से ही संभव है. जिसकी मशाल लिए थियेटर ऑफ़ रेलेवेंस
चल रहा है. हमारे साथी चल रहे हैं. गांधी का सपना सोती आँखों का सपना नहीं था, जागती आँखों का सपना था और यह सच होकर रहेगा. गांधी का
मार्ग ही दुनिया की सही राह है.
धनंजय कुमार, मुम्बई
#रंगकर्म#राजनीति #गांधी
#थिएटरऑफ़रेलेवंस
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Sunday, September 27, 2020
मूलतः रंगमंच एक राजनैतिक कर्म है जो राजनीति और रंगमंच के अन्तर्सम्बन्ध को नहीं जानता वो ‘रंगकर्मी’ नहीं है! –मंजुल भारद्वाज
रंगमंच और राजनीति :
मूलतः रंगमंच एक राजनैतिक कर्म है जो राजनीति और रंगमंच के अन्तर्सम्बन्ध को नहीं जानता वो ‘रंगकर्मी’ नहीं है! –मंजुल भारद्वाज
आज का समय ऐसा है, आज का दौर ऐसा है आज विपदा का दौर है, संकट का दौर है, महामारी का दौर है, या भारत के संदर्भ में कहूं तो एक ऐसा दौर है जब राजसत्ता अपने देशवासियों को खत्म करने पर उतारू है । ऐसे समय में बहुत अपेक्षाएं होती हैं । जाहिर है होनी भी हैं, मानव स्वभाव है, अपेक्षाएं आप अपने - अपने तरीके से करते हैं । अपने लिए करते हैं और कई बार समग्र करते हैं और जो समग्र चिंतन होता है वही कलात्मक है, नहीं तो एक निजी सुख या निजी स्वार्थ होता है ।
आज तकनीक की संचार क्रांति पर सवार होकर मैं आप तक पहुंच रहा हूँ। यह पहुंचना संचार है। यह संचार व्यापक है। मतलब मैं अपने घर के कोने में बैठ के आज पूरी दुनिया में हूँ, दुनिया में आप मुझे पढ़ रहे हैं, समझ रहे हैं, पर क्या आप मुझे महसूस कर रहे हैं? मैं बात कर रहा हूँ कि तकनीक के द्वारा हम संचारित हैं, तकनीक संख्यात्मक पूरा वैश्विक रूप ले चुकी है, लेकिन जो रूबरू होने का अनुभव, अनुभूति, स्पर्श रंगमंच पर है वह यहां नहीं है और मैं जानता हूँ कि आप मेरे इस बात से सहमत हैं।
जब मैंने कहां सहमत हैं तो आज के इस लेख-चर्चा में बहुत सारे बिंदु असहमति के होंगे और वह असहमति के बिंदु कोई विरोधाभास नहीं है। बल्कि जो रंगमंच का लक्ष्य है उसे पाने का अलग अलग तरीका है, अलग-अलग पद्धति हैं और इस पद्धति के तहत हम आज सहमति असहमति से आगे बढ़ेंगे और मथेंगे इस समय को और इस को मथते हुए हम अपनी अवधारणाओं को मथेंगे। आप सब जो मुझे पढ़ रहे हैं आप सबकी अपनी अपनी अवधारणाएं हैं। वह अवधारणाएं आपने अपना जीवन जीते हुए बनाई हैं, जीवन जीते हुए अनुभव की हैं, उन अवधारणाओं को आज थोड़ा कुरेदेंगे ।
आज का दौर ऐसा है खासकर भूमंडलीकरण के इस दौर से पहले यानी 1990 के पहले हम देश के नागरिक थे, 1990 के बाद हम देश में ग्राहक हो गए हैं तो हमको ऐसा कंडीशंड किया जाता है कि जो लिख रहा है उसकी यह जिम्मेदारी है कि पढ़ने वाले को संतुष्ट करे। भूमंडलीकरण के इस खरीद-फरोख्त वाले दौर में जाहिर है जो बेच रहा होगा उसको ग्राहक यानी पाठक को संतुष्ट करना पड़ेगा, नहीं तो उसका सामान आप खरीदेंगे नहीं। लेकिन आज का विमर्श खरीद-फरोख्त नहीं है। मैं आपको कुछ बेच नहीं रहा हूँ और आप कुछ खरीद नहीं रहे हो। तो समझ बनाने के लिए हम सब की बराबरी की जिम्मेदारी है और उस जिम्मेदारी में आज आइए अपनी अवधारणाओं में हम ढूंढते हैं अपना-अपना बुद्ध!
'बुद्ध' का मतलब यहां एक बिंब है, एक तत्व है, जिसको मैं आज आपके सामने रख रहा हूँ। वह तत्व है अहिंसा का, वह तत्व है प्रेम का, सद्भाव का, सह अस्तित्व का। बुद्ध के पहले से है कला, रंगमंच, और रंगमंच तब से है जब मनुष्य ने मनुष्य होने का एहसास किया था। या मैं कहूं मनुष्य से इंसान बनने की शुरुआत कला से शुरू हुई. मनुष्य ने जब समूह को समझा तो कला सामूहिक बनी और रंगमंच के रूप में हमारे सामने आज मौजूद है। मैं यह भी कह दूं की, रंगमंच को शुरू होने से लेकर आज तक कोई खतरा नहीं है और ना आगे होगा। वह खतरा इसलिए नहीं है ‘जब तक मैं इंसान के रूप में, मनुष्य के रूप में, सांस लेता रहूंगा, जब तक मुझे जीने की चाहत रहेगी, जब तक मुझे स्पर्श की अनुभूति रहेगी, तब तक रंगमंच जीवित है’।हां रंगकर्मियों की, रंगमंच पर काम करने वालों की चुनौतियां हो सकती हैं और रहेंगी।
आइए समय को समझते हैं। समय का मतलब है स से सत्य, म से मंचित और य से यायावर। यानी सत्य को मंचित करता हुआ यायावर, जो सत्य को मंचित करता है वही रंगकर्मी है और आज के इस समय में एक क्रूर, निर्दयी, निर्मम दौर में हम जी रहे हैं। महामारी ने हमको पुनरावलोकन के लिए चेताया है। महामारी हमें यह कह रही है कि आप मनुष्यों की लालसा,लालच प्रकृति में दखल है.आप पुनरावलोकन कीजिए और अपने आप यह तय कीजिए कि आप को कैसे जीना है?
लेकिन राजसत्ता या राज्यव्यवस्था अलग व्यूहरचना रच रही है। मैं यहां तकनीक का बिंदु लाना चाहता हूँ। 70 महीने से हम तकनीक की बात सुन रहे हैं, समझ रहे हैं, डिजिटल इंडिया की बात कर रहे हैं। डिजिटल हो गया है सब और यह भी सच है कि डिजिटल जुमलों से 70 साल के बाद 70 महीनों से एक अनोखी बहुमत की सरकार है। आप सोच रहे होंगे कि रंगमंच का राजनीति से क्या सम्बन्ध? तो मैं यह स्पष्ट कर दूं आपको कि मौलिक रूप से मूलतः रंगमंच एक राजनैतिक कर्म है! वह कैसे इसका विस्तार मैं आगे कर रहा हूँ. डिजिटल इंडिया को समझिए। डिजिटल इंडिया को समझते हुए हमें 1990 के बाद से यह समझना है कि 1990 के बाद इस देश में कौन रह रहा है। इस देश में वो रह रहा है जो मंडल, कमंडल और भूमंडल से निकला है और आप देखिए कि मंडल वाले आरक्षण में शामिल होकर नौकरियों में हैं यानी कि वह साधन हीनता से संसाधन संपन्न हो गए हैं। जो भूमंडल वाले हैं वह देश के संसाधनों को बेच कर अमीर हो रहे हैं और कमंडल वाले सत्ता पर बैठे हैं। डिजिटल जुमलों से वह सत्ता पर काबिज हैं। अब जब यह विपदा आई और पहला लॉक डाउन हुआ फिर दूसरा लॉक डाउन हुआ और फिर तीसरा हुआ और विगत 15 से 20 दिनों में जो मंडल, कमंडल और भूमंडल के बाहर जो देशवासी हैं, जो 70 महीनों में किसी को नहीं दिख रहे थे वो हम सबको दिखाई देना शुरू हो गए और हम सबको इस तरह से दिखाई देना शुरू हुए कि उन्होंने इस डिजिटल सत्ता को उखाड़ फेंका है। आप सही पढ़े हैं , उखाड़ फेंका है!
जब आपके मन में कोई सृजन भाव आता है या कोई कलात्मक विचार आता है तो आप दिन रात उसको मथते रहते हैं , फिर उसे लिखते हैं , फिर उसे प्रस्तुत करते हैं , उसके बाद वह दर्शकों को दिखाई देता है। आज यह अदृश्य भारतीय अपने कदमों से पूरे भारत को माप रहे हैं। चल रहे हैं इनका चलना लोकतंत्र का संघर्ष है। क्योंकि 70 महीने वाली सरकार ने डिजिटल फरेब से सबको काबू कर लिया था यानी मध्यमवर्ग, निचला मध्यमवर्ग, सरकारी तंत्र, मीडिया सब उनके जयकारे में लगे हैं। दुर्भाग्य है सेना भी फूल बरसा रही है । लेकिन यह अंतिम व्यक्ति वही है जो गांधी के हैं, जो अंबेडकर के हैं, जो मार्क्स के सर्वहारा हैं, इन अंतिम व्यक्तियों ने एक सत्याग्रह किया है या मैं कहूं सत्ता से विद्रोह किया है। प्रतिरोध किया है और वह प्रतिरोध अहिंसक है।
बहुत व्यथित हुआ मैं और लगातार देखता रहा फिर जिस दिन औरंगाबाद (महाराष्ट्र) की घटना घटी और ट्रेन का जो हादसा हुआ उस दिन बहुत वेदना के बाद एक रचना रची और एक नई दृष्टि मुझे मिली। यही लोग हैं जो लोकतंत्र के लिए लड़ रहे हैं और यह डिजिटल इंडिया के राज में कहीं नहीं हैं। इनकी संख्या 12 करोड़ बताई गई है। मैं बात कर रहा हूँ समय की, 12 करोड़ का मतलब है कि वे लगभग जर्मनी के डेढ़ गुना के बराबर हैं। यानी दुनिया की पांचवीं आर्थिक महासत्ता हमारे देश में सड़कों पर चल रही है और जब मैंने वह कविता लिखी उस पर सवाल भी उठे। उस पर पूछा गया "बताओ मैं क्यों नहीं चला" ! यह भी चर्चा हुई कि यह कोई सोचा समझा फैसला नहीं है।
आज मैं जो भी बात कर रहा हूँ वह केवल और केवल रंगमंच के बारे में बात कर रहा हूँ। जी सही समझे आप और जब पढ़ा लिखा मध्यमवर्ग अपने घर में बैठकर कोरोना से हाथ स्वच्छ करने का प्रण ले रहा था, या बाहर मत निकलो की सीख दे रहा था उस समय यह मजदूर, यह गरीब सोच रहा था। इसका सत्याग्रह बिना सोचा समझा नहीं है। इसका सत्याग्रह निरा पेट से निकला भी नहीं है। इसका सत्याग्रह है "मुझे करने के लिए काम चाहिए"। और जब मुझे करने के लिए कोई काम नहीं है तो मैं वहां पहुंचना चाहता हूँ जहां मुझे थोड़ा बहुत काम मिले, जहां मुझे सुरक्षा मिले, जहां मेरा अपना होना हो !
इस सत्याग्रह ने, इस डांडी मार्च ने, इस अहिंसक प्रतिरोध ने, भारत के लोकतंत्र को जीवित कर दिया है। और डिजिटल सरकार को खत्म कर दिया है। जी कानूनी रूप से वे सत्ता में हैं, लेकिन वे खत्म हो चुके हैं । गिरते हुए थोड़े दिनों में आप देखेंगे उन्हें।
मैं यह रेखांकित करना चाहता हूँ कि रंगमंच इसी तरह से इनविजिबल होता है और जो विजिबल होता है वह उसका 10% हिस्सा भी नहीं होता। रंगमंच को आपको समझना है तो एक बिंब आपके सामने रखता हूँ - वह है "आइसबर्ग" यानी "हिमखंड"। जितना समुद्र के ऊपर यानी पानी की सतह के ऊपर हमें हिमखंड दिखता है वह उसके टोटल आकार का 10% होता है बाकी सतह के नीचे होता है। तो 90% रंगमंच में क्या होता है? रंगमंच यह शब्द जब आपके मस्तिष्क में कौंधता है तो आपके सामने क्या क्या दृश्य आते हैं? आपके सामने आता है एक ऑडिटोरियम, आपके सामने आता है स्टेज, आपके सामने आते हैं दर्शक, आपके सामने आते हैं सेट,कॉस्टयूम, मेकअप, एक्टर, पर यह अपने आप में थिएटर नहीं हैं। इस सबके पीछे क्या होता है? इस सबके पीछे है जीवन। जीवन बहुत बड़ा है और जीवन ही सत्य है। जीवन की पुनरावृत्ति है रंगमंच और जब तक आपको जीवन का अभ्यास नहीं होगा तब तक आप रंगकर्म में मौजूद हो सकते हैं, संवाद बोल सकते हैं, पर रंगकर्म को आप कितना जीते हैं यह एक सवाल है?
आज जब मजदूरों ने अपनी आहुति देकर, अपने प्राणों की आहुति देकर, इस लोकतंत्र को जिंदा किया है, इसी तरह से रंगमंच मनुष्य में मनुष्य को जीवित करता है। मनुष्य में मनुष्य को जीवित करना या मनुष्य को इंसान बनाना यही रंगमंच का अंतिम ध्येय है यह समझ लीजिए। और अगर यह ध्येय पूरा नहीं होता है तो हम रंगमंच नहीं, रंगमंच के नाम पर कुछ और कर रहे हैं।
डिजिटल यानी तकनीक, डिजिटल थिएटर एक नया जुमला उभर आया है। यह डिजिटल के फरेब को फिर से आपके सामने उदाहरण देता हूँ कि एक जनधन योजना का बहुत सारा ढोल पीटा गया। भूखे लोगों को उनके जनधन अकाउंट में 500 – 500 रूपये ट्रांसफ़र किए और जब वो अपने अकाउंट से पैसा निकालने गए तो इस डिजिटल सत्ता की पुलिस ने उनका डंडों से स्वागत किया। सारी की सारी महिलाओं को हिरासत में लिया गया और उनको 10 हजार के मुचलके पर छोड़ा गया। यह है डिजिटल इंडिया!
दूसरा एक अनुभव है जिसको समझिए। आप सोचिए यह पैसा मनीआर्डर से उनके घर पहुंचा तो, एक डाकिया उनको देकर आता, तो क्या उनको डंडे खाने पड़ते? हां मैं समझ गया आप बहुत समझदार हैं, पढ़े-लिखे हैं, सभ्य हैं, दिमाग में यह सवाल आ रहा है सब जगह जब लॉक डाउन है, बंद है तो कैसे पहुंचता डाकिया? जब पुलिस का डंडा आप तक पहुंच सकता है, तो डाकिया क्यों नहीं पहुंच सकता! अब तो आप देखिए कि डिजिटल इंडिया के फरेब से सरकार भी बाहर निकली है। दारु के ठेके खोले गए क्योंकि दारू इंटरनेट से नहीं पहुंचाई जा सकती उसको लेने जाना पड़ेगा या घर पहुँचाना पड़ेगा। तो खाना क्यों नहीं पहुंचाया जा सकता?
यहां यह समझना अनिवार्य है कि राजनीति के गर्भ से निकली राज्यव्यवस्था नीति बना सकती है, नियम बना सकती है, सड़क बना सकती है, मनुष्य को मनुष्य नहीं बना सकती और रंगकर्म मनुष्य को मनुष्य बनाता है। बिना राजनीति, राजनैतिक प्रक्रियाओं को समझे कैसे सत्ता से उपजे विष से मनुष्य को मुक्त किया जा सकता है? इसलिए जो राजनीति और रंगमंच के अन्तर्सम्बन्ध को नहीं जानता वो ‘रंगकर्मी’ नहीं है वो रंग दृष्टि शून्य मात्र एक नाचने गाने वाला हुनरमंद शरीर है. जो मात्र दरबारों की रंग नुमाइश होता है. सत्ता या पूंजीपतियों के दिल बहलाने वाला भोग हो सकते हैं. वो इस भोग से लोकप्रिय हो कर खूप पैसा कमा ख्यातिनाम हो सकते हैं पर रंगकर्मी नहीं हो सकते! जैसे बिना राजधर्म निभाए कोई लोकप्रियता की भीड़ से देश का प्रधानसेवक बन सकता है पर राजनीतिज्ञ नहीं बन सकता!
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सांस्कृतिक सृजनकार काल की पुकार! – मंजुल भारद्वाज
सांस्कृतिक सृजनकार काल की पुकार! – मंजुल भारद्वाज
मैं ढूंढ रहा हूँ उन साथियों को जिनके साथ में इस रंग अनुभव को साझा कर सकूं ! – मंजुल भारद्वाज
मैं ढूंढ रहा हूँ उन साथियों को जिनके साथ में इस रंग अनुभव को साझा कर सकूं ! – मंजुल भारद्वाज
26 नवम्बर,2019 को
सांस्कृतिक चेतना को जागते हुए ‘सांस्कृतिक क्रांति’ का एक अविस्मरणीय अनुभव हुआ.
रंग उर्जा का वो प्रवाह,वेग,तेज,सैलाब या बवंडर जो आप कहें वो मेरे मस्तिष्क में
घनघना रहा है,उमड़ घुमड़ रहा है. ऐसा ही तो चाहा था 28 वर्ष पहले.. थिएटर ऑफ़ रेलेवंस
नाट्य सिद्धांत के सूत्रपात का उद्देश्य यही है ..जिसकी पूर्ति का यह प्रयोग रहा.
बिना राजनैतिक पार्टी या चुनाव में सीधे हस्तक्षेप किया ..अपने रंगकर्म से
राजनैतिक परिदृश्य में दखल दे सत्ता को बदल देने का अनोखा अनुभव बड़ा बैचेन कर रहा
है. जहाँ कलाकार सत्ता का भांड या पेट भरने के रंगकर्म का उपयोग कर रहे हों ..वहां
रंगकर्मी की औकात की वो सत्ता की धारा बदल दे ..अविश्वसनीय है ..पर सत्य है ..
मेरे इस फितूर से
किसी को लेना देना नहीं है. दर्शकों ने, आयोजकों ने ..मीडिया ने नाटक की , लेखक-
निर्देशक की , कलाकारों की बहुत तारीफ़ की. कलाकार भी अपने कर्म की दाद के बाद अपने
जीवन में मस्त हैं.
मैं बैचैन हूँ की
यह अनुभव किसको बताऊँ, किस रंगकर्मी में यह चेतना की मशाल जलाऊँ.. समाज का कौन सा
वर्ग है जिसको मेरे अनुभव से कोई लेना देना है वो भी वर्चस्वादियों के शासन काल
में.
मैं ढूंढ रहा हूँ
उन साथियों को जिनके साथ में इस रंग अनुभव को साझा कर सकूं !
....
एक सृजनकार का
उद्देश्य होता है, उसकी ‘रचना’ में निहित ‘उर्जा’ स्पंदित होकर, पूरे समाज में रचना के ध्येय को स्पंदित करे. और जब ये
उद्देश्य साकार होता है तब सृजनकार का व्यक्ति आह्लादित होकर प्रकृति की भांति सम
हो जाता है. यही सम उसे सृजनकार बनाता है.
मैंने ऐसा ही
महसूस किया 26 नवम्बर, 2019 को नाटक ‘राजगति’ के मंचन में. महाराष्ट्र के चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद
सत्ता की कवायद अपने षड्यंत्र के चरम पर थी. जबकि नाटक ‘राजगति’ राजनैतिक परिदृश्य को बदलने के लिए प्रतिबद्ध
है. चुनाव के पहले जनता में संविधान सम्मत देश के मालिक होने का भाव नाटक राजगति
ने जगाया था. वर्चस्व वादियों को उनका ठौर दिखा दिया था जनता ने.
सत्ता में वचन
निभाना अनिवार्य होता है, ऐसा बोध सत्ता के लिए ही सही, पर राजनैतिक पार्टियों को भी हुआ. एक पार्टी विकारी पार्टी
को छोड़ विचार की ओर आगे बढ़ी ... अलग अलग विचार का झंडा फहराने वाली सत्ता सुख भोगी
पार्टियां भी खरखराते हुए होश में आई और सत्ता समीकरण का घटना क्रम हुबहू ऐसा चल
रहा था जैसा नाटक ‘राजगति’ के मंच पर...
एक-एक पल, संवाद, कलाकारों का सृजन
स्पंदन और सृजनकार का राजनैतिक चिंतन दृष्टि आलेख रियल टाइम में रियल घटनाओं को
स्पंदित कर रहा था. जिसका साक्षी था औरंगाबाद का गोविंदभाई श्राफ कॉलेज का
ऑडिटोरियम. गोविंदभाई श्राफ कॉलेज के ऑडिटोरियम में दर्शकों ने राजगति की रंगसाधना
से सत्ता, व्यवस्था, राजनैतिक चरित्र
और राजनीति को अलग अलग राजनैतिक विचारधाराओं के माध्यम से विश्लेषित किया. विकार
और विचार के संघर्ष को जीते हुए विचार धारा के प्रहार को भी सहन किया. थिएटर ऑफ़
रेलेवंस रंग सिद्धांत की इस अनूठी रंग अनुभूति को सभी दर्शकों ने वैचारिक असहमति
के बावजूद स्वीकारा और वैचारिक असहमति के बिंदुओं पर निरंतर संवाद प्रक्रिया का
संकल्प लिया.
आज लोकतंत्र की
सबसे कमज़ोर कड़ी यानी संख्याबल का फायदा उठाकर
वर्चस्ववादी सत्ता के शीर्ष पर विराजमान हैं, जिनके आतंक के
सामने पत्रकार पत्तलकार हो चारण हो गए, जनता विकल्पहीन
भेड़ और कलाकार जयकारा लगाने वाली भीड़ बन गए. ऐसे समय में सत्ता के अंधे बीहड़ में
दृष्टिहीन धृतराष्ट्र को ‘राजनैतिक विवेक’ का दीया दिखाने
का कर्म आत्मघाती है. पर इस चुनौती का थिएटर ऑफ़ रेलेवंस के प्रतिबद्ध कलाकारों ने
बखूबी सामना किया और राजगति नाटक के मंचन से जनता के राजनैतिक विवेक को जगाया.
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#मंजुलभारद्वाज
#रंगकर्म
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