Tuesday, October 6, 2020

मैं कौन हूँ! – मंजुल भारद्वाज

 


मैं कौन हूँ! – मंजुल भारद्वाज

एक सवाल अंतर्मन में गूंज रहा है... मैं कौन हूँ! यह सवाल इसलिए भी कौंध रहा है क्योंकि जिस समाज में आज जीवित हूँ वो फ्रोजन स्टेट में है. तर्क से परे आस्था के अंधकार में सोया हुआ. अपनी पहचान,आवाज़,अस्तित्व और अधिकारों को बेचकर विकास खरीदता हुआ यह समाज विनाश में चारों ओर से धस गया है. सरेआम बोले हुए झूठ को सच मानता है. बार बार बोले हुए झूठ पर सवाल नहीं करता.बस भेड़ बन जयकारा लगाता है. आदमी के भेष में अपने जिस्म को ढ़ोती हुई भेड़ों को मैंने पहले कभी नहीं देखा. बहुत पार्टियों की सरकार आई और गई. पर जुमले और झूठ पर टंगी सरकार पहली बार देखी है. देश की जनता को भेड़ बनते पहली बार देखा है. संविधान के ‘WE THE PEOPLE’ को असहाय और बिलखते हुए पहली बार देखा है. देश के एक सूबे को विकास के नाम पर खत्म कर देने के षड्यंत्र को पहली बार देखा है. गांधी को फूल माला चढाते हुए सत्ताधीश को ‘मैं भी गोडसे’ बोलते हुए भी पहली बार देखा है. देश के निर्माताओं को राष्टद्रोही करार देने वाले तानाशाह और उनको सोशल मीडिया पर प्रचारित करते समाज को पहली बार देखा है ... देश के संविधान को नमन कर उसको खत्म करने वाले सत्ताधीश को पहली बार देखा है...
पूरा समाज फ्रोजन स्टेट में है ...और अपनी चेतना में मैं दिन रात अकेला जल रहा हूँ ... उस जलती हुई रौशनी में यहाँ तक के सफ़र का अवलोकन करता हूँ ... 2 अक्तूबर को गाँधी से बात हुई ...उनसे पूछा बापू क्या मिला आपको? वो मुस्कुराये जो तुम्हें मिला ‘अकेलापन और चंद सवालों के समाधान के लिए अपनी चेतना की आग में जलते रहने का इनाम! ... 28 सितम्बर को भगत सिंह मिले उनसे पूछा क्यों फांसी पर चढ़े? ...उन्होंने कहा रौशनी के लिए खुद जलना पड़ता है ... 14 अप्रैल को अम्बेडकर से बात हुई उनसे पूछा क्यों संविधान बनाया? उन्होंने कहा ‘सत्ता की चेतना’ जगाने के लिए ... तीनो का जवाब जलती हुई मशाल में घी डाल गया... आग़ और भड़क गई.. ये तो चले गए .. इनको जो करना था वो कर गये ...सवाल फिर सामने खड़ा हो गया ..मैं कौन हूँ?
अपनी ही आग़ में जलते हुए यूँहीं बैठा था की मार्क्स से मुलाक़ात हो गई. उनसे पूछा क्यों तानशाहों की ढाल बने हुए हो सर्वहारा के नाम पर? वो कुछ बोलते इससे पहले ही उनके परम भक्त,उनके बारे में सारी किताबें पढ़ने का दावा करने वाले मुझ पर टूट पड़े... उन्होंने ऐलान किया तुम मार्क्स से सवाल नहीं कर सकते .. एक लम्बी किताबों की सूची देते हुए कहा जाओ इनको पढ़कर आओ फ़िर सवाल पूछना मार्क्स से ... चौपाल में मौजूद लोगों को मैंने निहारते हुए देखा..उन्होंने हाथ झटकते हुए कहा हमने मार्क्स को नहीं पढ़ा ..हम कुछ नहीं बोल सकते !
दुनिया और देश की मिटटी में खाक छानते हुए 50साल के जीवन और 28 वर्ष रंगकर्म, रंग मतलब विचार, विचारों का कर्म करते हुए एक एक मौसम को देखा और बदला है.पर भूमंडलीकरण के विध्वंस ने उस सारे बदलाव को ‘अर्थहीन’ कर दिया. क्या गांधी को सत्ता के बटवारे ने अर्थहीन कर दिया था? सवाल सुलझने की बजाए और उलझ गया ..मैं कौन हूँ? क्या खोज रहा हूँ?
अपने रंग सिद्धांत ‘थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’ पर लिखे नाटकों को लेकर जब 1992 के साम्प्रदायिक दंगों में जलती मानवीयता को बचाने निकला था अपने रंगकर्मियों के साथ तो भ्रमित दंगाइयों में कहीं दबी हुई इंसानियत थी ..इसलिए नाटक ने जब हाथों में तलवार लिए भीड़ को इंसानी आवाज़ दी तो उन्होंने तलवार फेंकते हुए कहा था ..इंसानियत जिंदाबाद! आज भीड़ पशु के नाम पर दिन दहाड़े सत्ताधीश के इशारे पर सुनियोजित ढंग से क़त्ल करती है.. बचाने वाले पुलिसवाले की कुल्हाड़ी और उसके ही सर्विस रिवाल्वर से सरेआम हत्या कर देती है और सत्ता हत्यारों को फूल माला पहनाती है .. और समाज मौन धारण कर लेता है... मौन से सवालों की आग़ और धधकती है ...
क्या खोज रहा हूँ मैं? मैं कौन हूँ! अपने ही घर में ..अपने ही टीवी में अपने ही पैसों से ...अपने ही को हर पल ..हर रोज़ हिन्दू मुसलमान में तक्सीम होते देख रहा हूँ .. अपने घर में निकम्मी महानगर पालिका की वजह से बारिश के पानी में डूबा हुआ बैठा हूँ मैं .. अपने ही पखाने को अपने घर में तैरता, सड़ता हुआ देख ... मैं सत्ताधीश का शौचालय पर भाषण सुन रहा हूँ ... सरदार पटेल के स्टेचू के नीचे देश को दरकते हुए देख रहा हूँ मैं ... सरदार सरोवर के पानी में डूबते भारतवासियों को देख रहा हूँ मैं...
मैं विकास खरीदते जिस्मों में चेतना जगाना चाहता हूँ ...राष्ट्रवाद की उन्मादी भीड़ में ‘इंसानियत’ जगाना चाहता हूँ ...अपनी विवशता को अपनी ताक़त बनाना चाहता हूँ ... एक गोली ..या फांसी के फंदे या राष्ट्रद्रोह के मुकदमें का स्वागत करते हुए अपने आसपास भारत खोजना चाहता हूँ मैं ..अपनी रंग चेतना से मूर्छित समाज में भारतीयता का भाव जगाना चाहता हूँ ..नेताओं की चाटुकारिता की बजाए जनता में देश का मालिक होने का अहसास पैदा करना चाहता हूँ .. नौकरशाहों को नेताओं का रक्षक होने की बजाए संविधान का रक्षक होने का फर्ज़ जगाना चाहता हूँ ..लहूलुहान न्यायपालिका में न्याय और सत्ताधीश में विवेक जगाना चाहता हूँ ....मैं भारतवासी हूँ ...भारत मैं संविधान सम्मत भारत का पुन:निर्माण करना चाहता हूँ ...मैं... मैं को हम में साकार करना चाहता हूँ !

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