नाटक लोक - शास्त्र सावित्री के निहितार्थ !
दुनिया समता और सहभागिता से बचेगी !
धनंजय कुमार
60 और 70 के दशक में थियेटर-रंगमंच-नाटकों को लेकर जो चैतन्यता थी, अब वो निराशा में बदल चुकी है. ये वो दौर था जब थियेटर मनोरंजन के बाड़े से निकल कर चेतना और चिंतन के स्तर उड़ान भर रहा था, लेकिन 90 आते आते सब बदल गया. ग्लोबलाइजेशन और लिबरलाइजेशन के दौर में आर्थिक सुधार और आर्थिक सुधारों के लिए कदम ज़्यादा ज़रूरी हो गए. आर्थिक सुधारों ने आमो ख़ास की ज़रूरतें इस कदर बदली कि चेतना पर पत्थर पड़ गए और बदहवास पैसों के पीछे भागना ही हमारा जीवन बन गया. जब समाज का सुर बदल गया तो भला रंगकर्मी कैसे जुदा होते? सब भविष्य और सुख सुरक्षित करने में लग गए और नाटक करना-चेतना की बात करना बेमानी होता चला गया!
हिन्दी थियेटर की दुनिया को छोड़िए मराठी थियेटर भी इस आर्थिक बदलाव के झंझावात से बच नहीं सका. एन एस डी के रंगकर्मियों से लेकर मराठी थियेटर से जुड़े नाट्यकारों के सामने भी यह दुविधा खड़ी हो गयी कि किधर जाया जाय, समाज और मनुष्यता की चिंता की जाय या अपने आपको आगे बढ़ाने की दौड़ में शामिल हुआ जाय.
आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण ने दुनिया को बदल दिया था, सारी शक्तियां बाज़ार और पूंजीपतियों की मुट्ठी में जा चुकी थीं. ऐसे में सामाजिक और मनुष्यता वादी सरोकारों के थियेटर का बच पाना सरल नहीं था. और बच पाया भी नहीं. देश के लगभग तमाम बड़े धुरंधरों ने घुटने टेक दिए- या तो सिनेमा का रुख किया या फिर सरकारी अनुदानों की बैशाखी थाम ली. दोनों थियेटर के कलाकारों के लिए भंवर साबित हुआ.
ऐसे विकट माहौल में कला और मनुष्यता के बीच समन्वय स्थापित करना और कला कला के लिए नहीं, मनुष्य के जीवन के बदलाव का माध्यम है- इसे समाज के बीच साकार करना आसान बात नहीं है. लेकिन रंग चिन्तक-रंगकर्मी -रंग विचारक मंजुल भारद्वाज ने इसे आसान बना दिया है. बिना आर्थिक भंवर में फंसे मंजुल लगातार अच्छे नाटक कर रहे हैं और सिर्फ़ शौक या प्रतिबद्धता के नाते नहीं बल्कि आजीविका के सवालों को हल करते हुए. ये वाकई हतप्रभ करने वाली बात है कि बिना किसी सरकारी या सेठों के अनुदान-दान के वह नाटक कर कैसे पा रहे है. वह भी निरंतर; बारहों महीने.
मंजुल और उनकी टीम का बारहों महीने- 365 दिन एक ही काम है एक ही सोच है एक ही लक्ष्य है- नाटक नाटक और नाटक. और मंजुल और उनकी टीम उन लोगों के लिए ध्रुवतारा की तरह हैं, जो कहते है कि अच्छे और गंभीर नाटकों के दर्शक नहीं है या कहते हैं कि नाटकों के भरोसे सम्मान का जीवन नहीं जिया जा सकता. मंजुल और उनकी टीम लगातार इस मिथ बन चुकी लाइन को झुठला रहे हैं ! उनके नाटक सामाजिक सरोकार से गहरे जुड़े हैं और दर्शकों की संख्या और दर्शकों का उत्साह भी दस्तावेज में दर्ज़ होने वाला है.
मंजुल अभी 'लोक-शास्त्र सावित्री' नाटक का प्रयोग कर रहे हैं. सावित्री बाई फुले भारतीय महिला जीवन की ध्रुवतारा हैं. मंजुल ने उनके जीवन को नाटक में ढाला और मंच पर साकार किया अपने कलाकारों के सहयोग से. मराठी थियेटर जगत आह्लादित है इसके प्रदर्शन से- नयी चेतना का संचार हुआ है. और दर्शकों से लेकर थियेटर से जुड़े लोगों में उत्साह जगा है कि ग्लोबलाइजेशन और आर्थिक दौर ने सब ख़त्म नहीं किया है.
लोक-शास्त्र सावित्री मराठी भाषा में लिखा नाटक है, लेकिन इसकी भूमिका पूरे मानव समाज के लिए महत्वपूर्ण हैं. शास्त्र कोई भी हो शुद्धतावादी बना दिया गया है, लेकिन सावित्री बाई लोक नायिका हैं, वह भगवान या अवतार नहीं है- सामान्य स्त्री की असाधारण स्त्री हो जाने की कहानी है. देवी नहीं असाधारण स्त्री की कहानी. इसीलिये यह लोक शास्त्र है. मुझे लगता है लोक शास्त्र धर्मं शास्त्र से ऊंचा है. धर्म शास्त्र मनुष्य के लिए दैवीय हो जाता है- जबकि लोकशास्त्र विरासत के तौर पर साथ चलता है. मंजुल उस विरासत को रूप, रंग, स्वर और जीवन दे रहे हैं.
मंजुल भाई
बधाई
! जब दुनिया के लोग खुद को बचाने में लगे हैं और आप दुनिया को बचाने में लगे हैं, तो आत्मीय बधाई
तो बनती है मित्र !