नाटककार धनंजय कुमार लिखित नाटक “विद्या ददाति विनयम”– शिक्षा के / विद्या के
अर्थ और उसके मर्म को उजागर करते हैं . आज बाजारवाद / पूंजीवाद और भारत में लार्ड
मैकाले की औपनिवेशिक शिक्षा नीति से शिक्षा व्यवस्था और तंत्र शिक्षा को पेट भरने
तक सिमटाये हुए हैं और जितना शिक्षा का प्रचार प्रसार हो रहा है उतना या उससे ज्यादा
भ्रष्टाचार , हिंसा और हैवानियत बढ़ रही है . इसका सीधा अर्थ है की शिक्षा अपने मूल
उद्देश्य से भटक गयी है , वो व्यापार तो बन गयी पर ‘विद्या’ नहीं बन पायी ! नाटक “विद्या ददाति विनयम” शिक्षा के
मौलिक उद्देश्य को हाशिये पर रह रहे, शिक्षा से
वंचित बच्चों के माध्यम से रेखांकित करते
हैं की शिक्षा ‘मनुष्य को इंसान’ बनाती है !
1998 में यानी 18 साल पहले
पत्रकार , समीक्षक , सीरियल और फिल्म लेखक
और निर्देशक “थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’ के संपर्क में आए और सकारात्मक रूप से
प्रभावित हुए . मूलतः धनंजय कुमार उग्र पर सहिष्णु समीक्षक हैं
.. पटना के हर तरह के रंगकर्म से वाकिफ , पत्रकारिता में लेफ्ट के अखबार से लेकर राईट तक वाया जनसत्ता , शांति जैसे
सीरियल का लेखन कर चुकने के बाद , इंडस्ट्री , पत्रकारिता और रंगकर्म की कलाबाजियों
से अवगत धनंजय कुमार का “थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’ से
जुड़ाव एक सुखद और प्रेरक अनुभव है .
उस समय “थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’ की
अवधारानाओं के तहत बाल मजदूर बच्चों के साथ सघन रंग कार्यशालाओं का आयोजन हो रहा
था . मुंबई के उपनगर कांदिवली (पश्चिम) की “फ़ोकट नगर / गौतम नगर और गणेश नगर” की
झोपड़पट्टियों में रहने वाले और गराज, चाय की टपरी /खोका ,फैक्ट्रियों में काम करने
वाले बच्चों की एक कार्यशाला को
उत्प्रेरित करने के लिए “शांति” सीरियल के सह निर्देशक और कास्टिंग डायरेक्टर ,
रंगकर्मी विनोद कुमार को आमंत्रित किया था . इस कार्यशाला में विनोद कुमार के
आग्रह पर धनंजय कुमार ने शिरकत की . ये जुगल बंदी रंग लाई और एक
सार्थक आयाम को आपके सामने रखा . ये आयाम है धनंजय कुमार लिखित नाटक “विद्या ददाति विनयम”. विनोद कुमार के
निर्देशन में ये नाटक बाल नाट्य उत्सव की प्रथम प्रस्तुति के रूप में दर्शकों के
सामने मंचित हुआ और इस नाटक ने बाल सहभागिता के रंगकर्म का नया इतिहास लिखा !
रंगकर्मी विनोद कुमार और नाटककार धनंजय कुमार 1999 से लगातार “थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’
आन्दोलन के रचनात्मक सहभागी हैं .
प्रथम मंचन : 13 जनवरी , 1999
“थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’ की बाल रंग कार्यशालाओं को एक सूत्र में पिरोकर ई.टी.एफ ने 1999 में ' बाल नाट्य उत्सव ' का आयोजन किया। इस आयोजन में सामाजिक रूप से सम्पन्न बच्चों के साथ मजदूरों , फुटपाथी बच्चों , भीख माँगने वाले बच्चों , बस्तियों के बच्चों ने अपने अपने चुने हुए विषयों पर नाटक लिखे, उनमें अभिनय किया व स्वयं उन्हें निर्देशित कर ' बाल नाट्य उत्सव ' में प्रस्तुत किया।
' बाल नाट्य उत्सव ' का आयोजन पृथ्वी थियेटर , कर्नाटक संघ व बाल भवन इत्यादि प्रतिष्ठित रंगगृहों में होता है।
' बाल नाट्य उत्सव ' के आयोजन को संजना कपूर, पृथ्वी थियेटर , क्राई, यूनिसेफ ,सी.सी. वी.सी व सैकड़ों सहभागी नाट्य मण्डलियों व संस्थाओं का सक्रिय रचनात्मक सहयोग मिल रहा है। मुम्बई व देश के विभिन्न समाचार पत्रों , टी.वी. चैनलों ने ' बाल नाट्य उत्सव ' को प्रमुख खबर के रूप में प्रकाशित या प्रसारित किया।
' बाल नाट्य उत्सव ' का उद्देश्य ' बच्चों ' को ' मंच' प्रदान करना है , 'जहाँ वो अपने को जैसा चाहें वैसा अभिव्यक्त करें। ' इस उत्सव के माध्यम से अपनी मन की बात, अपने दर्द , तड़प, चाहत , उमंगों और जरूरतों को समाज के सामने रखें। बच्चों के नाटक अपनी पूरी रंग परिपूर्णता के साथ ' बाल नाट्य उत्सव ' में खेले जाते हैं।
1999 में मुम्बई स्तर पर इस उत्सव की शुरुवात हुई और आज इस नाट्य उत्सव में मुम्बई के अलावा देश के विभिन्न राज्यों से बाल समूह शिरकत कर रहे हैं। अपने मासूम अभिनय और निश्छल अभिव्यक्ति से बाल कलाकारों ने उत्सव की गरिमा व रंगकर्म का गौरव बढ़ाया है। 1999- 2003 तक के पांच वर्षों में 1250 बच्चों ने 41 मौलिक एक अंकीय नाटकों का मंचन ' बाल नाट्य उत्सव ' में किया ।
' बाल नाट्य उत्सव ' बाल सहभागिता की मिसाल है या यूँ कहें एक 'मशाल' है जिसने सारे देश को रोशनी दी है। इस उत्सव का आयोजन नियमित रूप से हर साल देश के विभिन्न हिस्सों में अलग अलग संस्थानों द्वारा किया जाता है । इस उत्सव से देश के विभिन्न हिस्सों में स्थानीय स्तर पर नाट्य गतिविधियों को गति मिली।
उम्मीद है आप सब को रंग साधना के यह पड़ाव
नई रंग प्रेरणा दे पाएं...
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“थिएटर ऑफ रेलेवेंस” नाट्य सिद्धांत का सूत्रपात सुप्रसिद्ध
रंगचिंतक, "मंजुल भारद्वाज" ने 12 अगस्त 1992 में किया और तब से उसका अभ्यास और
क्रियान्वयन वैश्विक स्तर पर कर रहे हैं. “थिएटर ऑफ़ रेलेवंस “रंग सिद्धांत के अनुसार
रंगकर्म ‘निर्देशक और अभिनेता केन्द्रित होने की बजाय “दर्शक और लेखक केन्द्रित हो क्योंकि दर्शक
सबसे बड़ा और शक्तिशाली रंगकर्मी है.
पूंजीवादी कलाकार कभी भी अपनी कलात्मक सामाजिक जिम्मेदारी नहीं लेते इसलिए “कला – कला के लिए” के चक्रव्यहू में फंसे हुए हैं और भोगवादी कला की चक्की में पिस कर ख़त्म हो जाते हैं . “ थिएटर ऑफ़ रेलेवंस “ ने “कला – कला के लिए” वाली औपनिवेशिक और पूंजीवादी सोच के चक्रव्यहू को अपने तत्व और सार्थक प्रयोगों से तोड़ा (भेदा) है और “दर्शक” को जीवन को बेहतर और शोषण मुक्त बनाने वाली प्रतिबद्ध ,प्रगतिशील,समग्र और समर्पित रंग दृष्टि से जोड़ा है .
“ थिएटर ऑफ़ रेलेवंस “ अपने तत्व और सकारात्मक प्रयोगों से एक बेहतर , सुंदर और मानवीय विश्व के निर्माण के लिए सांस्कृतिक चेतना का निर्माण कर सांस्कृतिक क्रांति के लिए प्रतिबद्ध है !
पूंजीवादी कलाकार कभी भी अपनी कलात्मक सामाजिक जिम्मेदारी नहीं लेते इसलिए “कला – कला के लिए” के चक्रव्यहू में फंसे हुए हैं और भोगवादी कला की चक्की में पिस कर ख़त्म हो जाते हैं . “ थिएटर ऑफ़ रेलेवंस “ ने “कला – कला के लिए” वाली औपनिवेशिक और पूंजीवादी सोच के चक्रव्यहू को अपने तत्व और सार्थक प्रयोगों से तोड़ा (भेदा) है और “दर्शक” को जीवन को बेहतर और शोषण मुक्त बनाने वाली प्रतिबद्ध ,प्रगतिशील,समग्र और समर्पित रंग दृष्टि से जोड़ा है .
“ थिएटर ऑफ़ रेलेवंस “ अपने तत्व और सकारात्मक प्रयोगों से एक बेहतर , सुंदर और मानवीय विश्व के निर्माण के लिए सांस्कृतिक चेतना का निर्माण कर सांस्कृतिक क्रांति के लिए प्रतिबद्ध है !
वाह ! बहुत सुंदर !
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