नाटक – “मेरा बचपन” – बाल
मजदूरी पर एक प्रहार है और किसी भी सूरत में बचों के शोषण को स्वीकार नहीं करता.
मध्यम वर्ग और सरकारों के गरीबी विलाप के खिलाफ़ ये नाटक इस भ्रम को तोड़ता है की
गरीबी बाल मजदूरी का एकमात्र और इकलौता कारण है.नाटक अपने तर्क और शोध से सिद्ध
करता है की गरीबी के नाम पर बच्चों का शोषण करने की मानसिकता बाल मजदूरी का कारण
है.
प्रथम मंचन – 12 अप्रैल 1994
मेरा बचपन नाटक की अपार
सफलता ने बाल रंगकर्म व बाल नाट्य उत्सव के लिए
प्रेरित किया
इस कार्यक्रम
का उद्देश्य नाट्य कर्मियों की इस भ्रामिक स्थिति को स्पष्ट करना था कि 'नाटक
प्रत्यक्ष बदलाव नहीं लाता।'
नाट्यकर्मी ज्यादातर इस बहस में उलझें रहतें
हैं या नाटक की सामाजिक जबाबदारी से बचतें रहतें हैं। उनकी सोच ज्यादातर थिएटर की
इस क्षमता के प्रति उदासीन रहती है लेकिन अंदर की प्रक्रिया में वो जानते है कि
थिएटर में क्रांति की लावा है। इन रंगकर्मियों की हिचक को तोड़ने , उनके सामने
प्रत्यक्ष बदलाव का उदाहरण खड़ा करने और “थिएटर ऑफ़ रेलेवंस” की अवधारणा को क्रियान्वित करने के लिए 1994 में बाल
मजदूरों के साथ रंगकर्म करना शुरू किया ।
बाल मजदूरों
पर आधारित नाटक 'मेरा बचपन' इन बस्तियों
में खेला । बाल मजदूरों के साथ नाट्य कार्यशाला की । बाल मजदूरों ने स्वयं 'मेरा बचपन' नाटक की
प्रस्तुति अपने माँ - बाप ,
मालिकों व बस्ती के लोगों के सामने की। इस
प्रयोग योजना का नाम है 'स्कूल जाओ
अभियान'। इस प्रक्रिया ने ना केवल बाल
मजदूरों , बल्कि उनके माँ - बाप ,
मालिक ,
बस्ती के रहवासी , स्कूलों के
अध्यापक , समाजसेवक ,
जागरूक प्रबुद्ध लोगों को नाट्य प्रक्रिया
में गुंथा।
सामान्यतः
बालमजदूरी के कारणों में 'गरीबी'
को प्रमुख कारण माना जाता है। लेकिन ये बैठे
बिठाये भ्रम को स्वीकार करना है। बाल मजदूरी के गैर आर्थिक कारण ज्यादा हैं।“थिएटर ऑफ़ रेलेवंस” ने अपनी नाट्य प्रक्रिया से 'बाल
अभिव्यक्ति' को मजबूत किया । दरअसल ,
हुआ यूं की 'मेरा बचपन' की
प्रस्तुति बाल मजदूर कलाकारों ने जब अपनी बस्ती में की तो मालिक ने तालियां बजाई ।
माँ-बाप ने सराहा । बाल मजददूर बच्चों को हैरानी हुई की जो व्यक्ति दिन भर उसे मारता
है, गालियां देता है ,
वही उसका नाटक देखकर तालियां बजा रहा है। बाल
मजदूरों के मन में सवाल उठा की जो बस्ती उसे
हिकारत की नज़र से देखती थी , वही उसकी
वाह – वाही कर रही है । जो माँ-बाप मुझे
नज़र भर देखते नहीं थे ,
उनकी आँखों में मेरे प्रति चमक है।
बाल मजदूरों
के इन सवालों को “थिएटर ऑफ़ रेलेवंस” ने अपने
नाटकों द्वारा अभिव्यक्ति दी और बाल मजदूर,
बाल मजदूरी छोड़कर स्कूल जाने लगे। माँ-बाप
चाहे कितने ही गरीब हो या अमीर हमेशा अपने बच्चों को बेहतरी चाहते हैं और “थिएटर ऑफ़ रेलेवंस” ने इस धारणा
को ध्यान में रखकर माँ- बाप के साथ संवाद किया और माँ -बाप ने "We are born to serve the society" की धारणा को तोड़ा और 'हमारा भी
समाज में बराबरी का हक़ है'
की धारणा को अपनाया।अपने यहाँ बच्चों को काम
पर रखने वाले नियोजकों ने “थिएटर ऑफ़ रेलेवंस” के नाटकों से
सीख ली और अपने गरॉज में बच्चों को पढ़ने की जगह दी और
अपने यहाँ बाल मजदूर रखना बंद कर दिया ।
'थिएटर ऑफ़ रेलेवंस' ने क्रांति
की व देश भर में हज़ारों बाल मजदूरों को स्कूल भेजा है । सन 2003 तक 'मेरा बचपन' नाटक के 12000 (बारह हजार) से ज्यादा प्रयोग भारत के विभिन्न प्रदेशों में हुए हैं और इस नाटक
और 'थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’
की नाट्य प्रक्रियाओं से
उत्प्रेरित होकर देश अलग हिस्सों में 50 हजार बाल मजदूर स्कूल जाने लगे । ख़ुशी व प्रात्साहित करने वाली बात यह है
कि कुछ बाल मजदूरों ने आज नाटक को अपनी आजीविका के रूप में चुना है व समाज को
नाट्य प्रक्रिया से बदलने का बीड़ा उठाया है।
आज भी 'मेरा बचपन' नाटक खेल जा
रहा है और यह आधुनिक रंगकर्म में 'मील का पत्थर' साबित हो
रहा है।
उम्मीद है आप सब को रंग साधना के यह पड़ाव
नई रंग प्रेरणा दे पाएं
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“थिएटर ऑफ रेलेवेंस” नाट्य सिद्धांत का सूत्रपात सुप्रसिद्ध
रंगचिंतक, "मंजुल भारद्वाज" ने 12 अगस्त 1992 में किया और तब से उसका अभ्यास और क्रियान्वयन वैश्विक स्तर पर कर रहे हैं. “थिएटर ऑफ़ रेलेवंस “रंग सिद्धांत के अनुसार
रंगकर्म ‘निर्देशक और अभिनेता केन्द्रित होने की बजाय “दर्शक और लेखक केन्द्रित हो क्योंकि दर्शक
सबसे बड़ा और शक्तिशाली रंगकर्मी है.
पूंजीवादी कलाकार कभी भी अपनी कलात्मक सामाजिक जिम्मेदारी नहीं लेते इसलिए “कला – कला के लिए” के चक्रव्यहू में फंसे हुए हैं और भोगवादी कला की चक्की में पिस कर ख़त्म हो जाते हैं . “ थिएटर ऑफ़ रेलेवंस “ ने “कला – कला के लिए” वाली औपनिवेशिक और पूंजीवादी सोच के चक्रव्यहू को अपने तत्व और सार्थक प्रयोगों से तोड़ा (भेदा) है और “दर्शक” को जीवन को बेहतर और शोषण मुक्त बनाने वाली प्रतिबद्ध ,प्रगतिशील,समग्र और समर्पित रंग दृष्टि से जोड़ा है .
“ थिएटर ऑफ़ रेलेवंस “ अपने तत्व और सकारात्मक प्रयोगों से एक बेहतर , सुंदर और मानवीय विश्व के निर्माण के लिए सांस्कृतिक चेतना का निर्माण कर सांस्कृतिक क्रांति के लिए प्रतिबद्ध है !
पूंजीवादी कलाकार कभी भी अपनी कलात्मक सामाजिक जिम्मेदारी नहीं लेते इसलिए “कला – कला के लिए” के चक्रव्यहू में फंसे हुए हैं और भोगवादी कला की चक्की में पिस कर ख़त्म हो जाते हैं . “ थिएटर ऑफ़ रेलेवंस “ ने “कला – कला के लिए” वाली औपनिवेशिक और पूंजीवादी सोच के चक्रव्यहू को अपने तत्व और सार्थक प्रयोगों से तोड़ा (भेदा) है और “दर्शक” को जीवन को बेहतर और शोषण मुक्त बनाने वाली प्रतिबद्ध ,प्रगतिशील,समग्र और समर्पित रंग दृष्टि से जोड़ा है .
“ थिएटर ऑफ़ रेलेवंस “ अपने तत्व और सकारात्मक प्रयोगों से एक बेहतर , सुंदर और मानवीय विश्व के निर्माण के लिए सांस्कृतिक चेतना का निर्माण कर सांस्कृतिक क्रांति के लिए प्रतिबद्ध है !
good job , keep it up
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