थिएटर
को नए मायने दे रहे हैं मंजुल भारद्वाज
§ धनंजय
कुमार
थियेटर ऑफ रेलेवेंस के माध्यम से
मंजुल भारद्वाज ने थियेटर को मंचों से उतारकर आम जीवन में प्रतिस्थापित किया है.
उनके नाटक महज शो भर नहीं होते, बल्कि पल-प्रति-पल आपको उद्वेलित करते हैं,
विचारों के केन्द्र में आपको बिठाते हैं और आपके जीवन और आपके समाज
की समीक्षा आप से ही करवाते हैं. यह मंजुल का अपना सृजन है.
मंजुल भारद्वाज ने अपनी रंगयात्रा
एक साधारण रंगकर्मी के तौर पर शुरू की थी. तब उनमें रंगकर्म को लेकर उत्साह और कुछ
बेहतर करने की ललक तो थी, लेकिन वो रंगदृष्टि नहीं थी, जिसके दिखाए रास्ते पर चलकर
वह उस मंजिल पर पहुँच पाते, जहाँ उनका अवचेतन उन्हें ले जाना चाहता था. लिहाजा
उन्होंने रंगकर्म को अपना तो लिया, लेकिन वह अपने समकालीन रंगकर्म के साथ तालमेल
नहीं बिठा पा रहे थे. 60 के दशक में भारतवर्ष में रंगक्रांति के रूप में उभरा
रंगकर्म दिल्ली स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के परिसर तक सिमट चुका था. बाकी
शहरों में एमैच्योर नाट्य संस्थाएँ जैसे-तैसे थिएटर की डोली ढो रही थीं. थिएटर का
वजूद शो में तब्दील हो चुका था. रंगकर्मी थिएटर कर तो रहे थे, लेकिन थिएटर की मूल
भावना दफन हो चुकी थी. थिएटर या तो टीवी और सिनेमा में रोल पाने का माध्यम भर रह
गया था या फिर अपने आपको खुश रखने का जरिया.
मंजुल भारद्वाज थिएटर में अपने लिए
दोनों से जुदा रोल तलाश रहे थे. बेचैनी में उन्होंने न सिर्फ भरत मुनि का
नाट्यशास्त्र पढ़ा, बल्कि दुनिया भर के रंगविचारों का अध्ययन किया और पाया कि दुनिया
के रंग चितकों ने प्रयोग पक्षों अथवा व्यावहारिक खोजों की अपेक्षा सैद्धांतिक विचार-विमर्श
पर अधिक बल दिया है, जबकि इसके व्यावहारिक पक्षों पर सबसे ज्यादा काम करने की
जरूरत है, क्योंकि थिएटर में जनक्रांति की असीम संभावनाएँ हैं. किंतु कतिपय कारणवश
थिएटर आलेख और अभिनेता के स्तर पर आकर ठिठक गया. थिएटर को महज तकनीकों और
प्रदर्शनों तक सीमित रखना थिएटर की रचनात्मक संभावनाओं और क्षमताओं को कुंद करना
है. उसकी वास्तविक योग्यताओं को जानबूझकर नजरअंदाज करना है. थिएटर को उसके आगे के
ले जाने की जरूरत है. और इसी विचार के तहत मंजुल भारद्वाज ने “थिएटर ऑफ रेलेवेंस”
का सृजन किया. इसके तहत उन्होंने थिएटर के पाँच आयाम गढे.
1.
थियेटर, जो अपनी उच्चतम सृजनशीलता से दुनिया को बेहतर और मानवीय बनाने के लिए प्रतिबद्ध
हो.
2.
थियेटर, जिसमें कला सिर्फ कला के लिए न हो, बल्कि समाज के संदर्भ में प्रासंगिक हो और
अपने उत्तरदायित्वों को निभाए.
3.
थियेटर, जो मनुष्य की जरूरतों को समझे और उसे अभिव्यक्ति के लिए, अपनी बात कहने
के लिए मंच उपलब्ध कराए.
4.
थियेटर, जो अपने आप बदलाव का माध्यम बने. और
5.
थियेटर, जो मनोरंजन की सीमाओं से निकल कर जीवन जीने का मार्ग बने.
लेकिन इस क्र्म में मंजुल भारद्वाज थिएटर के
कलात्मक और मनोरंजक पक्ष को भी नहीं भूलते हैं और वह भरत मुनि के साथ-साथ विदेशी
रंगसिद्धांतकारों – स्तानिस्लावस्की, मेयर होल्ड, आंत्वां आर्तो और बेख्त आदि के
रंगविचारों को आगे ले जाते हुए दिखते हैं. स्तानिस्लावस्की से पहले के रंगविचारकों
ने नाट्यालेख को ज्यादा महत्व दिया, जबकि स्तानिस्लावस्की ने नाट्यालेख से ज्यादा
महत्व अभिनय को दिया, उसे वैज्ञानिक रूप दिया और उसे कल्पनाशीलता के घेरे से
खींचकर सच के करीब लाया. उनका मानना था कि अभिनय जबतक विश्वसनीय नहीं होगा,
प्रस्तुति का वास्तविक प्रभाव उभरकर दर्शकों के समक्ष नहीं आएगा. इसलिए उन्होंने
अभिनेताओं को अपने शरीर और भावनाओं पर नियंत्रण रखने की बड़ी ही कुशल तकनीक दी,
जिसके सहारे कलाकार परिस्थिति और दर्शकों की उपस्थिति से प्रभावित हुए बिना अभिनीत
भूमिका को अधिकतम विश्वसनीय बनाकर प्रस्तुत कर सके. मंजुल कलाकारों के साथ अभिनय
पर काम करते हुए तकनीक का मानवीय आयाम गढ़ देते हैं और नाट्यालेख के वास्तविक
चरित्रों को ही अभिनेता के तौर पर दर्शकों के सामने प्रस्तुत कर देते हैं, ताकि
नाट्यालेख अपने मौलिक आवेग और संवेदनाओं के साथ दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत हो सके और
नाटक का अधिकतम प्रभाव दर्शकों पर पड़ सके. इस तरह मंजुल स्तानिस्लावस्की के
रंगचितन को नया रूप दे देते हैं, लेकिन इस क्रम में वह नाट्यालेख के महत्व को भी
कमतर नहीं करते. ब्रेख्त की तरह ही वह नाट्यालेख को उतना ही महत्व देते हैं और नाट्य
प्रयोग से पहले अभिनेताओं के साथ कार्यशाला करते हुए वह अभिनेताओं को नाट्यालेख के
विषय की गंभीरता और उसके घटनाक्रमों के इतना करीब ले जाते हैं कि अभिनेता
नाट्यालेख का किरदार ओढ़नेवाला कलाकार नहीं, बल्कि वास्तविक किरदार बन जाता है. वह
घटनाक्रमों के तमाम पहलुओं पर पहले विमर्श करते हैं, कलाकार उन्हें आत्मसात करते
हैं, फिर वह विषय को अभिव्यक्त करते हैं. इस क्रम में नाट्यालेख में काफी बदलाव भी
आते हैं और नाटक सिर्फ लेखक का नाटक न होकर दर्शक के जीवन की हकीकत में तब्दील हो
जाता है. यहाँ, यह जानना भी जरूरी है कि मंजुल नाट्यलेखक को भी सत्य और
कल्पनाशीलता के बीच विचरने और संवरने का अवसर देते हैं. यहाँ मंजुल आंत्वां आर्तो के चिंतन को आगे ले
जाते हुए प्रतीत होते हैं. आर्तो भी नाट्य आलेखों को लेकर बाकी रंगविचारकों से अलहदा
सोच रखते थे, उनका मानना था कि पहले नाट्यालेखों से हमारा नाता टूटना चाहिए. और
फिर खोजना चाहिए उस विस्तार को, उस आलेख के विचार और हावभाव को, जो लेखक की अद्भुत लेखन शैली और भाषा में निहित है. ऎसा करते हुए मंजुल की कोशिश होती है कि दर्शक
नाट्यप्रस्तुति देखते वक्त सिर्फ दर्शक न रहे, बल्कि उसे लगे कि यह उसका भोगा,
देखा अथवा सुना हुआ सत्य पुनर्प्रकट हो रहा है. वह अभिनय के साथ-साथ नाट्यालेख को भी विशवसनीयता के
शीर्ष पर ले जाते हैं, क्योंकि मंजुल अपने नाट्यप्रयोगों में सबसे अधिक
महत्व दर्शक को देते हैं. वह दर्शक को पहला रंगकर्मी मानते हैं. उनका मानना है कि
नाट्यप्रयोग बिना दर्शक के असंभव है. इसलिए दर्शकों के आसपास के विषय को ही वह
अपने नाट्यालेख की विषयवस्तु बना लेते हैं.इस तरह मंजुल यहाँ दूसरे रूसी रंगचितक
मेयरहोल्ड के करीब से गुजरते दिखते हैं.
मेयरहोल्ड की दृष्टि
में भी दर्शकों का विशेष महत्व था. उनका रंगमंच पूरी तरह से दर्शकों को समर्पित था
और आलोचकों की प्रतिक्रिया चाहे जैसी भी रही हो, वह दर्शकों की दृष्टि को हमेशा साथ लेकर चलते थे. मेयरहोल्ड मानते थे कि
रंगमंच में दर्शक की बराबर की भागीदारी होती है. उसके बिना रंगमंच की कल्पना भी
नहीं की जा सकती. लेकिन साथ ही वह अपने दर्शकों से समय और गंभीरता की अपेक्षा रखते
थे. उनका मानना था कि जिन दर्शकों के पास समय की कमी है, उन दर्शकों को नाट्यप्रस्तुति देखने के लिए बुलाना, रंगमंच का अपमान है. लेकिन मंजुल मेयरहोल्ड से एक कदम और आगे जा निकलते हैं, जब वह दर्शकों की तलाश करने या दर्शकों को बुलाने की समस्या पालने के बजाय
दर्शकों की जरूरत बन जाते हैं. वह नाट्य प्रस्तुति की विषय वस्तु ही दर्शकों के
बीच से चुनते हैं. और प्रदर्शन के लिए मंच की तलाश में भी वह दर्शकों से दूर नहीं
जाते, बल्कि उनके बीच ही मंच स्थापित कर लेते हैं.
मेयरहोल्ड अभिनेता
होने के साथ-साथ लेखक और निर्देशक भी थे. उनका मानना था कि एक निर्देशक का काम
पूर्ण समर्पण का काम है. उसे एक नाटककार भी होना चाहिए, अभिनेता भी, चित्रकार भी संगीतवादक और इलेक्ट्रीशियन भी. यहाँ तक
कि उसे दर्जी और बढ़ई का काम भी आना चाहिए. मंजुल का भी ऎसा ही मानना है. वह एक
रंगकर्मी में सारे गुणों की अपेक्षा करते हैं.और रंगकर्मियों से इसी सम्पूर्णता की
तलाश में वह भी मेयरहोल्ड की तरह रंगप्रशिक्षण का कार्य भी वह अपना लेते हैं. और
मंजुल प्रशिक्षण की अपनी शैली विकसित कर लेते हैं.
पश्चिमी रंगजगत ने जिस इंसानी सोच को मनोव्यवहार
की सीमा में बाँधकर रख दिया था, उसे फ्रेंच रंगकर्मी आंत्वां आर्तो ने अपने
क्रांतिकारी चिंतन से तोड़ा और इंसान की आत्मा की मुक्ति का नया विचार सामने रखा,
जिसे ‘क्रूरता का रंगमंच’ के नाम से जाना जाता है. आर्तो का मानना था कि पहले समाज
को रद्द करना जरूरी है. समाज की पहले जड़ से सफाई की जानी चाहिए. तभी रंगमंच का
विचार उनकी सच्ची मदद करेगा. इस क्रम में आर्तो ने लिखे हुए नाट्यालेखों के
प्रदर्शन का भी विरोध किया. उनका स्पष्ट मानना था कि जो भी दृश्य बनेगा, वह सीधे
मंच पर बनेगा. उसमें उन सब उपादानों को प्रयोग में लाया जाएगा, जिसे मंच प्रदान
करता है. मंजुल भारद्वाज लिखे नाट्यालेखों को भले खारिज नहीं करते हैं, लेकिन वह नाट्य
लेखकों को लेखन की नई शैली से लैस करते हैं. वह लेखकों को समाज की घटनाओं के करीब
खींचकर ले जाते हैं और भुक्तभोगियों के अनुभवों, उनके परिवेश तथा पृष्ठभूमि से
साक्षात्कार करवाते हैं, फिर लिखने की आजादी देते हैं.
आर्तो की तरह मंजुल भी अभिनेताओं को अभिनीत
चरित्रों के मुखौटे पहनाने के बजाय उस अभिनेता के अपने मुखौटे भी उतारने की
प्रक्रिया अपनाते हैं, ताकि अभिनेता अपनी देह से निकलकर नाट्य चरित्र की काल्पनिक,
किंतु वास्तविक देह में प्रवेश करे और उस चरित्र की पीड़ाओं, खुशियों, दुविधाओं आदि
विभिन्न भावाभिव्यक्तियों को इस ईमानदारी से प्रस्तुत करे कि नाट्य चरित्र
काल्पनिक लगने के बजाय पूरी तरह वास्तविक रूप में साकार हो जाय.
मंजुल भारद्वाज थिएटर को सिर्फ दर्शकों के
मनोरंजन और कलाकार अथवा नाट्यप्रयोग से जुड़े रंगकर्मियों की आत्मसंतुष्टि का
माध्यम नहीं मानते हैं, बल्कि वह इसे जीवन में बदलाव और सामाजिक-राजनीतिक क्रांति के
उत्प्रेरक के तौर पर देखते हैं. जैसा कि मेयरहोल्ड और ब्रेख्त भी मानते थे. लेकिन
ऎसा मानते वक्त मंजुल सिर्फ रगमंच पर अपना काम करते नहीं दिखते, बल्कि वह
रंगकर्मियों और दर्शकों के जीवन में भी चुपके से उतर जाते हैं. वह अपने
नाट्यव्यवहारों और नाट्य प्रदर्शनों के माध्यम से उनकी सोच प्रक्रियाओं में समा
जाते हैं, और फिर न सिर्फ उनके सोच को प्रभावित करते हैं, बल्कि उनमें बदलाव और
क्रांति की जरूरत और चिंगारी जगा देते हैं. ऎसा करते वक्त वह दर्शक अथवा
रंगकर्मियों को कोई तय रास्ता नहीं सुझाते, बल्कि सही और नया रास्ता चुनने का
विवेक तराश कर देते हैं.
ब्रेख्त अभ्यास को बिना सोचे-समझे इस्तेमाल नहीं
करते थे. उनका मानना था कि इसका प्रयोग समझदारी से किया जाय, तो यह समाज के
क्रियाकलापों को उघाड़ती है किंतु अगर इसे नासमझी से इस्तेमाल करें, तो इसके अनुकरण
का कोई औचित्य दिखाई नहीं पड़ता. इसलिए सीखने की प्रक्रिया संयोजित होनी चाहिए तथा
अभिनेता अन्य अभिनेताओं के साथ सीखे. इसका कारण यह है कि लघुत्तम सामाजिक ईकाई
अकेला व्यक्ति नहीं, दो लोग हैं. जीवन में भी हम एक दूसरे का विकास करते हैं. मंजुल
यह प्रयोग सिर्फ रिहर्सलों तक सीमित नहीं रखते, बल्कि इसे अपनी कार्यशालाओं में भी
जमकर आजमाते हैं. वह कार्यशाला चाहे रंगकर्मियों की हो या बच्चों या सरकारी अफसरों
की. ऎसा करते वक्त मंजुल रंगकर्म से दूर के व्यक्तियों के अन्दर भी थिएटर को रोप
देते हैं. उनमें थिएटर के प्रति जागरूकता और चेतना पैदा कर देते हैं, और फिर वह
व्यक्ति सिर्फ दर्शक नहीं रहता, बल्कि रंगकर्मी बन जाता है. और रंगकर्म को सिर्फ मनोरंजन
या अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं मानता, बल्कि इसे अपने भीतर बदलाव का प्लेटफॉर्म मान
लेता है. और यही अनुभूति व्यक्ति के अन्दर सामाजिक-राजनीतिक क्रांति का जोश भरती है और
क्रांति की मशाल थामने के लिए उसे सहर्ष तैयार करती है.
मंजुल दर्शकों के साथ भी अद्भुत प्रयोग करते
हैं. वह दर्शक को नाट्य प्रदर्शन से अभिभूत होकर मात्र ताली बजाने वाले के तौर पर
नहीं देखते, बल्कि दर्शकों को वह अपने प्रदर्शनों में शामिल भी कर लेते हैं. एक
नाट्य प्रदर्शन करते वक्त वह अपने कलाकारों से दर्शकों के हाथ में राख दिलवाते
हैं, और कलाकार दर्शकों के हाथ में राख देते हुए कहता है कि यह उस लड़की की चिता की
राख है, जिसकी कल दहेज के लिए उसके ससुरालवालों ने जलाकर हत्या कर दी थी. दर्शक
चकित रह जाते हैं. उनके भीतर ढेर सारी भावनाएँ एक साथ बाढ़ के पानी की तरह घुस आती
हैं. जाहिर अब वह दर्शक सिर्फ दर्शक नहीं रहता है, बल्कि वहाँ प्रकट हो रहे विचार
का पोषक और विश्लेषक बन जाता है. मंजुल इस तरह के प्रयोग अपने नाट्य प्रदर्शनों
में खूब करते हैं.
मंजुल अपने नाट्य प्रदर्शनों के लिए किसी मंच के
मोहताज नहीं रहते, बल्कि वह जहाँ चाहते हैं, मंच का सृजन कर देते हैं, गली, मैदान,
स्कूल परिसर, झोपड़पट्टी और यहाँ तक कि बातचीत के लिए खड़ी छोटी सी जगह को भी मंच
में परिणत कर देते हैं. क्योंकि वह मानते हैं कि थिएटर के लिए दो व्यक्ति भी बहुत
हैं.
धनंजय कुमार
304, सुकांत को. ऑ. हा. सोसायटी, सेक्टर-3, आरडीपी-8,
चारकोप, कांदिवली(प), मुम्बई- 40067. मोबाइल – 08080012313.
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